________________ 122 क्षयोपशम भाव चर्चा बीसवीं शताब्दी में जिनागम को ताड़पत्रों से निकाल कर, कागज पर छपवा विद्वानों ने अपने अथक् श्रम एवं बुद्धिबल से उन संस्कृत-प्राकृत में लिखे चारों अनुयोगों के ग्रन्थों को प्रचलित हिन्दी, मराठी, गुजराती आदि विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित करा कर, जन-सामान्य के पठन-पाठन एवं स्वाध्याय के लिए लेकिन अब लगता है, कोई आगम और अध्यात्म के सुमेल को समझनेसमझाने वाला निष्पक्ष, निष्णात विद्वान् नहीं रहा; अतः मैंने फिर 'एकला चलो रे' की नीति को मन में धारण कर, आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी के मोक्षमार्ग प्रकाशक में प्रतिपादित चारों अनुयोगों से सन्तुलित तत्त्व-विवेचना को हृदयंगम कर, इस वर्तमान इक्कीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही शुरू हो रही धर्म एवं तत्त्वों की मिथ्या-प्ररूपणाओं से ऊब कर, आगम-अध्यात्म ग्रन्थों के आधार से उनके प्रमाणों को बिना तोड़े-मरोड़े, ज्यों का त्यों प्रस्तुत करने की प्रतिज्ञा लेकर, यह कलम चलाने का साहस-विकल्प संजोया है। जिनवाणी माँ का मंगल आशीर्वाद भी भरपूर मिल रहा है; अतः स्वल्पबुद्धि-प्रमाण सत्यार्थ पदों के किंचित् ज्ञान-बल से यह विनम्र आलेख लिखा है। आशा है कि यह मिथ्या प्ररूपणाओं के निरसन में अवश्य निमित्त बनेगा। 'खरा सो मेरा' (Right is Mine) - यही हमारी नीति होनी चाहिए; 'मेरा सो खरा'(Mine is right) - इस नीति से हमें सदा दूर ही रहना चाहिए। __जैनदर्शन, किसी देश-काल-परिस्थिति से या किसी व्यक्ति-विशेष से बँधकर सार्वभौमिक वीतराग-विज्ञान है, जो कि शाश्वत वस्तु-व्यवस्था को अन्यून (न कम), अनतिरिक्त (न ज्यादा), याथातथ्य (जैसा है वैसा), बिना विपरीतता के दर्शानेवाला दर्शन है। यदि कोई जैनाभासी आगमज्ञ, इस भय से कि पुण्य को एवं सराग-संयम को हेय कहने से जन-सामान्य, कहीं पाप को या असंयम को उपादेय मान लेंगे और धर्माचरण से विमुख हो जाएँगे तो उनका ऐसा सोचना भी यथार्थता के धरातल पर सही नहीं है, वरन् आगम-विरुद्ध भी है।