________________ पंचम चर्चा धवलादि ग्रन्थों में क्षयोपशमभाव का स्वरूप धवलादि ग्रन्थों में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व व चारित्र के विषय में जो प.पू. आचार्य वीरसेन, आचार्य समन्तभद्र, आचार्य जयसेन, आचार्य ब्रह्मदेवसूरि आदि ने प्रश्नोत्तररूप में स्पष्टीकरण किया है, उसे यहाँ उद्धृत करना अभीष्ट है - (1) धवला, पु. 14, पृष्ठ 21-22 सम्मत-देस-घादि-फद्दयाणमुदएण सम्मत्तुप्पत्तीदा ओदइयं / ओवसमियं पि तं, सव्व-घादि-फद्दयाणमुदयाभावादो। अर्थ- सम्यक्त्व के देशघाति-स्पर्द्धकों के उदय से सम्यक्त्व (वेदकसम्यक्त्व) की उत्पत्ति होती है; इसलिए तो वह औदयिक है और वह औपशमिक भी है क्योंकि वहाँ सर्वघाति-स्पर्द्धकों का उदय नहीं पाया जाता।' (इसको हम उदय व उपशम के युगपत्पने की विवक्षा से ‘उदयोपशमिक भाव' भी कह सकते हैं।) __- विशेष देखें, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 2, पृष्ठ 184 (2) धवला पुस्तक 8, पृष्ठ 54 कोध-संजलणो संजलण-कसायस्स तिव्वाणुभागोदय-पच्चओ, उवसमसेडिम्हि कोध-चरिमाणुभागोदयादो अणंत-गुण-हीणेण माणाणुभागोदयेण कोधसंजलणस्स बंधाणुवलंभादो। अर्थ - संज्वलन क्रोध का बन्ध, संज्वलन कषाय के तीव्र अनुभागोदय निमित्तक है, क्योंकि उपशमश्रेणी में क्रोध के अन्तिम अनुभागोदय की अपेक्षा अनन्तगुणे हीन संज्वलन मान के अनुभागोदय में संज्वलन क्रोध कषाय का बन्ध नहीं पाया जाता।' (इसी प्रकार मान-माया-लोभ में भी समझना।) फलितार्थ - जघन्य कषायांश स्वप्रकृति का बन्ध करने में असमर्थ है, परन्तु उससे बन्ध-सामान्य तो होता ही है।