________________ 116 क्षयोपशम भाव चर्चा इस क्षायोपशमिक, एक ही पर्याय में निर्मलता/अकालुष्य तथाअल्पमलिनता/ कालुष्यरूप अविभागी-प्रतिच्छेदों की युगपत् विद्यमानता होने से क्षायोपशमिक भाव की मिश्रभाव संज्ञा है। इस जीव के जो सर्वघाति-स्पर्द्धकों के अनुदय से व्यक्त निर्मलता है, उससे निरन्तर यथायोग्य कर्मों का संवर और निर्जरा होती रहती है तथा जो देशघातिस्पर्द्धकों के उदय से जो शुभाशुभ राग (कषायांश) उत्पन्न होता है, उससे यथायोग्य कर्मों का आस्रव-बन्ध होता रहता है। तात्पर्य यह है कि जो वीतरागतारूप शुद्धि अंश प्रगट है, उससे संवर-निर्जरा है और जो सरागता रूप अशुद्धि अंश है, उससे आस्रव-बन्ध है। इस प्रकार एक ही क्षायोपशमिकभाव अर्थात् मिश्रभाव से आस्रव -बन्ध-संवर-निर्जरा, चारों घटित होते हैं। ___ अब यदि कोई मनीषी विद्वान, आगम-सिद्ध इस हस्तामलकवत् तथ्य को न स्वीकारे और कहे कि यह समग्र क्षायोपशमिक भाव, एक शुभोपयोग भाव मात्र जितना ही है, इससे ही पुण्यासव-बन्ध तथा संवर-निर्जरा युगपत् होते रहते हैं तो यह कथन स्पष्ट रूप से आगम के विरुद्ध होने से सही नहीं ठहराया जा सकता। ___अथवा कोई ऐसा कहे कि शुभोपयोग या शुभभाव, क्षायोपशमिक भाव है, तो भी सही नहीं है; क्योंकि उसने अशुद्धयंश को शुद्ध्यंश मान लिया और मिश्रभाव को समझा ही नहीं; अतः आगम-निष्ठ विद्वानों को निष्पक्ष भाव से इस विषय पर विचार करना चाहिए और यदि वे इस प्रकार उक्त आगम-चर्चा से सहमत होते हैं तो उनका स्वागत है और यदि सहमत न हों तो कृपया वे अपना पक्ष/समाधान प्रस्तुत करें। उक्त चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि क्षायोपशमिक भाव न तो सर्वथा औदयिक है, न सर्वथा क्षायिक है, न सर्वथा औपशमिक है, बल्कि सर्वघातिस्पर्द्धकों के अनुदयरूप क्षयोपशम तथा देशघाति-स्पर्द्धकों के उदयरूप एक मिश्रभाव है; इसलिए इस मिश्र-भाव को मात्र शुभोपयोगरूप मानना/मनवाना, किसी भी प्रकार से उचित नहीं ठहराया जा सकता। शिवाकांक्षी दि. 09.09.07 - ब्र. हेमचन्द जैन 'हेम' (भोपाल) *****