________________ 102 क्षयोपशम भाव चर्चा जो जीव, प्रमत्त होते हुए भी संयत होते हैं, उन्हें प्रमत्त-संयत कहते हैं; इन्हीं जीवों (मुनि-भगवन्तों) का जब संयम, प्रमाद रहित होता है, तब उन्हें ही अप्रमत्त-संयत कहते हैं अर्थात् जिन जीवों के संयत होते हुए पन्द्रह प्रकार का प्रमाद नहीं पाया जाता, उन्हें अप्रमत्त-संयत समझना चाहिए। (इस प्रकार) संयम की अपेक्षा ये दोनों गुणस्थान क्षायोपशमिक है, क्योंकि प्रत्याख्यानावरणी-कषाय के अनुदय रूप क्षयोपशम तथा संज्वलन-कषाय के उदय से प्रत्याख्यान-चारित्र (क्षायोपशमिक-संयम) प्रगट होता है। (5) धवला, 1/178-179 “शंका - संज्वलन-कषाय के उदय से संयम होता है, इसलिए उसे औदयिक नाम से क्यों नहीं कहा जाता? समाधान - नहीं, क्योंकि संज्वलन-कषाय के उदय से संयम की उत्पत्ति नहीं होती है। शंका - तो संज्वलन का व्यापार कहाँ पर होता है? समाधान - प्रत्याख्यानावरण-कषाय के सर्वघाति-स्पर्द्धकों के उदयाभावी क्षय से (और उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से) उत्पन्न हुए संयम में मल के उत्पन्न करने में संज्वलन का व्यापार होता है। संयम के कारणभूत सम्यग्दर्शन की अपेक्षा तो ये गुणस्थान (छठवाँ-सातवाँ) क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव निमित्तक हैं। शंका - यहाँ पर सम्यग्दर्शन की जो अनुवृत्ति बतलायी है, उससे क्या यह तात्पर्य निकलता है कि सम्यग्दर्शन के बिना भी संयम की उपलब्धि होती है? समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि आप्त, आगम और पदार्थों में जिस जीव के श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई तथा जिसका चित्त तीन मूढ़ताओं से व्याप्त है, उसके संयम की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। शंका - यहाँ पर द्रव्य-संयम (द्रव्य-लिंग) का ग्रहण नहीं किया है - यह कैसे जाना जाए? समाधान - नहीं, क्योंकि भले प्रकार से जान कर और श्रद्धान कर, जो यम