________________ चतुर्थ चर्चा : क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन एवं चारित्र 105 कहा भी है - मिच्छत्ताविरदी वि य, कसाय-जोगा य आसवा होति। दंसण-विरमण-णिग्गह, णिरोहया संवरो होंति / / 2 / / अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग ये कर्मों के आस्रव अर्थात् आगमन-द्वार हैं तथा सम्यग्दर्शन, विषय-विरक्ति, कषाय-निग्रह और मन-वचनकाय का निरोध - ये संवर अर्थात् कर्मों के निरोधक हैं। शंका - यदि ये ही मिथ्यात्वादि चार बन्ध के कारण हैं तो - ओदइया बंधयरा, उवसम-खय-मिस्सया य मोक्खयरा / भावो दु पारिणामिओ, करणोभय-वज्जिओ होति / / 3 / / अर्थात् औदयिक भाव, बन्ध करनेवाले हैं; औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव, मोक्ष के कारण हैं; तथा पारिणामिकभाव, बन्ध और मोक्ष दोनों के कारण से रहित हैं। - इस गाथा-सूत्र के साथ विरोध उत्पन्न होता है। समाधान - विरोध नहीं उत्पन्न होता है, क्योंकि औदयिक भाव, बन्ध के कारण हैं' - ऐसा कहने पर सभी औदयिक भावों का ग्रहण नहीं समझना चाहिए, क्योंकि वैसा मानने पर गति, जाति आदि नामकर्म-सम्बन्धी औदयिक भावों के भी बन्ध के कारण होने का प्रसंग आ जाता है। शंका - देवगति के उदय के साथ भी तो कितनी ही प्रकृतियों का बन्ध होना देखा जाता है, तो फिर उनका कारण देवगति का उदय क्यों नहीं होता? समाधान - उनका कारण देवगति का उदय नहीं होता, क्योंकि देवगति के उदय के अभाव में नियम से उनके बन्ध का अभाव नहीं पाया जाता। 'जिसके अन्वय और व्यतिरेक के साथ, नियम से जिसका अन्वय और व्यतिरेक पाया जावे, तो वह उसका कार्य और दूसरा कारण होता है।' (अर्थात् जब एक के सद्भाव में दूसरे का सद्भाव और उसके अभाव में दूसरे का भी अभाव पाया जावे तभी उनमें कारण कार्य-भाव संभव हो सकता है, अन्यथा नहीं।) - इस न्याय से मिथ्यात्व आदि ही बन्ध के कारण हैं।