________________ 112 क्षयोपशम भाव चर्चा यदि कहा जाय कि व्यवहारनय असत्य है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उससे व्यवहार का अनुसरण करनेवाले शिष्यों की प्रवृत्ति देखी जाती है; अतः जो व्यवहारनय, बहुत जीवों का अनुग्रह करनेवाला है, उसी का आश्रय करना चाहिए - ऐसा मन में निश्चय करके गौतम स्थविर ने चौबीस अनुयोगद्वारों के आदि में मंगल किया है। ___ यदि कहा जाय कि पुण्य-कर्म के बाँधने के इच्छुक देशव्रतियों को मंगल करना युक्त है, किन्तु कर्मों के क्षय के इच्छुक मुनियों को मंगल करना युक्त नहीं है, सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि पुण्य-बन्ध के कारणों के प्रति उन दोनों में कोई विशेषता नहीं है अर्थात् पुण्य-बन्ध के कारणभूत कामों को जैसे देशव्रती श्रावक करते हैं, वैसे ही मुनि भी करते हैं, मुनि के लिए उनका एकान्त से निषेध नहीं है। यदि ऐसा न माना जाय तो जिस प्रकार मुनियों को मंगल के परित्याग के लिए यहाँ कहा जा रहा है, उसी प्रकार उनके सराग-संयम के भी परित्याग का प्रसंग प्राप्त होता है, क्योंकि देशव्रत के समान सराग-संयम भी पुण्यबन्ध का कारण है। यदि कहा जाय कि मुनियों के सराग-संयम के परित्याग का प्रसंग प्राप्त होता है तो होओ, सो भी बात नहीं है, क्योंकि मुनियों के सराग-संयम के परित्याग का प्रसंग प्राप्त होने से उनके मुक्ति-गमन के अभाव का भी प्रसंग प्राप्त होता है। ___ यदि कहा जाय कि सराग-संयम, गुण-श्रेणी-निर्जरा का कारण है, क्योंकि उससे बन्ध की अपेक्षा मोक्ष अर्थात् कर्मों की निर्जरा असंख्यात-गुणी होती है, अतः सराग-संयम में मुनियों की प्रवृत्ति का होना योग्य है, सो ऐसा भी निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि अरहन्त-नमस्कार, तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा असंख्यात-गुणी कर्म-निर्जरा का कारण है, इसलिए सराग-संयम के समान उसमें भी मुनियों की प्रवृत्ति प्राप्त होती है। कहा भी है - अरहंत-णमोकारं, भावेण य जो करेदि पयड-मदी। सो सव्व-दुक्ख-मोक्खं, पावइ अचिरेण कालेण।।2।।