________________ चतुर्थ चर्चा : क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन एवं चारित्र 111 यदि कहा जाय कि प्रमाणानुसारी अर्थात् युक्ति के बल से आगम या गुरुवचन को प्रमाण माननेवाले शिष्यों में देवता-विषयक भक्ति को उत्पन्न करने के लिए मंगल किया जाता है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो शिष्य, युक्ति की अपेक्षा किये बिना मात्र गुरु-वचन के अनुसार प्रवृत्ति करता है, उसे प्रमाणानुसारी मानने में विरोध आता है। ___ यदि कहा जाय कि शास्त्र के आदि में किये गये मंगल से भक्तिमानों (भक्ति -धारकों) में भक्ति का उत्पन्न किया जाना सम्भव है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो कार्य उत्पन्न हो चुका है, उसकी पुनः उत्पत्ति मानने में विरोध आता है अर्थात् जिनमें पहले से ही श्रद्धामूलक भक्ति विद्यमान है, उनमें पुनः भक्ति के उत्पन्न करने के लिए मंगल का किया जाना निरर्थक है। यदि कहा जाय कि शिष्यों में सम्यक् श्रद्धा का अस्तित्व असिद्ध है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि अहेतुवादस्वरूप अर्थात् जो युक्ति-प्रयोग के बिना स्वयं प्रमाण है - ऐसे दृष्टिवाद अंग का सुनना, सम्यक्त्व के बिना बन नहीं सकता है, इसलिए उनके सम्यक्त्व का अस्तित्व सिद्ध हो जाता है। यदि कहा जाय कि लाभ, पूजा और सत्कार की इच्छा से भी अनेक शिष्य दृष्टिवाद को सुनते हैं, अतः अहेतुवादात्मक दृष्टिवाद का सुनना, सम्यक्त्व के बिना नहीं बन सकता है, यह कथन व्यभिचारी हो जाता है, सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि सम्यक्त्व के बिना श्रवण करनेवाले शिष्यों के द्रव्य-श्रवणपने को छोड़कर भाव-श्रवणपना नहीं पाया जाता है अर्थात् जो शिष्य, सम्यक्त्व के न होने पर भी केवल लाभादिक की इच्छा से दृष्टिवाद का श्रवण करते हैं, उनका सुनना केवल सुनना मात्र है, उससे थोड़ा भी आत्म-बोध नहीं होता है। यदि कहा जाय कि यहाँ द्रव्य-श्रवण से ही प्रयोजन है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि द्रव्य-श्रवण से अज्ञान का निराकरण होकर, कर्मक्षय के निमित्तभूत सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है; अतः इसप्रकार के शुद्धनय के अभिप्राय से गुणधर भट्टारक और यतिवृषभ स्थविर ने गाथासूत्रों और चूर्णिसूत्रों के आदि में मंगल नहीं किया है - ऐसा समझना चाहिए; किन्तु गौतमस्वामी ने व्यवहारनय का आश्रय लेकर कृति आदि चौबीस अनुयोग द्वारों के आदि में णमो जिणाणं' इत्यादि रूप से मंगल किया है।