________________ 108 क्षयोपशम भाव चर्चा बन्ध पाया जाता है और योग के अभाव में इस प्रकृति का बन्ध नहीं पाया जाता। इनके अतिरिक्त और अन्य कोई बन्ध-योग्य प्रकृतियाँ नहीं हैं, जिससे कि उनका कोई अन्य कारण हो। शंका - असंयम भी बन्ध का कारण कहा गया है, सो वह किन प्रकृतियों के बन्ध का कारण होता है? समाधान - यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि संयम के घातक कषायरूप चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय का ही नाम ‘असंयम' है। शंका - यदि असंयम, कषायों में ही अन्तर्भूत होता है तो फिर उसका पृथक् उपदेश किसलिए किया जाता है? समाधान - यह कोई दोष नहीं, क्योंकि व्यवहारनय की अपेक्षा से उसका पृथक् उपदेश किया गया है। बन्ध-कारणों की यह प्ररूपणा, पर्यायार्थिकनय का आश्रय करके की गई है, परन्तु द्रव्यार्थिकनय का अवलम्बन करने पर तो बन्ध का कारण केवल एक ही है, क्योंकि कारण-चतुष्क के समूह से ही बन्धरूप कार्य उत्पन्न होता है।" (7) जयधवला, 1/4-8 विशेषार्थ - समस्त द्रव्यश्रुत बारह अंगों में बँटा हुआ है; उनमें से बारहवें अंग दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र-, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका - ये पाँच भेद हैं। इनमें से चौथे भेद पूर्वगत के उत्पादपूर्व आदि चौदह भेद हैं, जिनमें पाँचवाँ भेद ज्ञानप्रवादपूर्व है। इसके बारह अर्थाधिकार (वस्तु) हैं और प्रत्येक अर्थाधिकार, बीस-बीस प्राभृत संज्ञक अर्थाधिकारों में विभक्त है। यहाँ पर इस पाँचवें पूर्व की दसवीं वस्तु के तीसरे पेज-प्राभृत या कषायप्राभृत से प्रयोजन है। गुणधर आचार्य को श्रुत-परम्परा से यही कषाय-प्राभृत प्राप्त हुआ था, जिसका अभ्यास करके गुणधर भट्टारक ने श्रुत-विच्छेद के भय से उसे अति-संक्षेप में एक सौ अस्सी गाथाओं में निबद्ध किया। __ अनन्तर गुरु-परम्परा से प्राप्त उन एक सौ अस्सी गाथाओं का आचार्य आर्यमंक्षु और नागहस्ति ने अभ्यास करके, उन्हें यतिवृषभ आचार्य को पढाया, उन्हें पढ़ कर, यतिवृषभ आचार्य ने उन पर चूर्णिसूत्र लिखे।