Book Title: Kshayopasham Bhav Charcha
Author(s): Hemchandra Jain, Rakesh Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust

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Page 103
________________ क्षयोपशम भाव चर्चा व्यवहार या सराग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को ही निश्चय मोक्षमार्ग जानकर, उनका साधन करते रहते हैं। उन जीवों की इस विशुद्ध परिणामरूप भली वासना के निमित्त से भले ही कदाचित् कर्म के स्थिति-अनुभाग घट भी जाएँ और तत्त्वविचार पूर्वक सम्यक्त्व प्राप्त भी हो जाए, परन्तु तत्त्वविचार रहित जीव, परमार्थ स्वरूप निश्चय-मोक्षमार्ग रूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को पहिचाने बिना, अन्य किसी भी उपाय से सच्चे मुक्तिमार्ग को असंख्य कल्पकालों में भी प्राप्त नहीं कर पाते हैं। शंका - इसका क्या कारण है? समाधान - इसका कारण यह है कि शुभाशुभ भावों के माध्यम से पुण्यपाप का विशेष अन्तर तो अघाति कर्मों में होता है, जो कि आत्म-गुण के घातक नहीं हैं तथा शुभाशुभभावों से घातिकर्मों का तो निरन्तर बन्ध होता ही रहता है, जबकि वे तो सर्व पापरूप ही हैं और वे ही आत्मगुणों के घातक हैं; इसलिए शुभाशुभ भाव दोनों ही अशुद्धभाव हैं और इन अशुद्ध (औदयिक) भावों से कर्मबन्ध होता ही रहता है। इन पुण्य-पापरूप कर्मों को या इनके बन्ध के कारण जो शुभाशुभ भाव हैं, उनको भला-बुरा जानना-मानना ही मिथ्याश्रद्धान है। इसकी साक्षी जिनागम में सर्वत्र है। प्रवचनसार गाथा 77, समयसार गाथा 145 आदि अनेक जगहों पर पुण्यपाप की एक कर्मरूप जाति ही सिद्ध की गयी है; अतः शुभोपयोग भी अशुभोपयोग की भाँति बन्ध-कारक होने से औदयिक ही है, क्षायोपशमिक नहीं। वस्तुतः जो जीव, अपने स्वयं के चिन्तन से भ्रमवश शुभोपयोग को क्षायोपशमिक चारित्र सिद्ध करके मोक्ष का कारण मानकर उपादेय मानते हैं, उनकी ऐसी मान्यता आगम-विरुद्ध है, मिथ्यात्व-पोषक है, सत्य से परे है। कृपया छहढाला की निम्न पंक्तियों पर ध्यान देवें - जिन पुण्य-पाप नहीं कीना, आतम-अनुभव चित दीना। तिन ही विधि आवत रोके, संवर नहि सुख अवलोके।

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