________________ 96 क्षयोपशम भाव चर्चा समाधान - वह व्यवहार चारित्र कहा है और व्यवहार नाम उपचार का है, सो महाव्रतादि होने पर ही वीतराग चारित्र होता है - ऐसा सम्बन्ध जानकर, महाव्रतादि में चारित्र का उपचार किया है। निश्चय से निःकषायभाव है, वही सच्चा चारित्र है।" समीक्षा - सभी आगमवेत्ता यह बात भलीभाँति जानते हैं कि इस जीव को 'अनादि-सम्बन्धे च' (तत्त्वार्थसूत्र, 2/41) -इस आगम-सूत्र के अनुसार अनादि ही से तैजस व कार्मण शरीर का सम्बन्ध है। कार्मण शरीर, ज्ञानावरण-दर्शनावरणवेदनीय-मोहनीय-आयु-नाम-गोत्र-अन्तराय - इन आठ कर्मों के समूहरूप अनन्तानन्त पुद्गल-परमाणुओं का पिण्ड है। इनमें ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीय-अन्तराय - ये चार कर्म, आत्म-गुणघातक अर्थात् आत्मा का स्वभाव व्यक्त न होने देने में निमित्त होने से घातिकर्म कहलाते हैं। शेष चार कर्म - वेदनीय-आयु-नाम-गोत्र; ये आत्म-गुण-घातक न होने से बाह्य संयोग (गति, जाति, शरीर, बाह्य सुख-दुःख के कारणरूप परद्रव्यों का संयोग, प्राप्त शरीर का आयु की स्थिति-पर्यन्त टिकना) आदि में निमित्त होने से अघातिकर्म कहे जाते हैं। घातिकर्मों में भी ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय - इन तीन कर्मों का अनादि ही से क्षयोपशम पाया जाता है। इन कर्मों के क्षयोपशम के निमित्त से जिसको जितने ज्ञान, दर्शन, वीर्य प्रगट होते हैं, वह उस जीव के स्वभावभाव का अंश ही है, कर्मजनित औपाधिक भाव नहीं है। इस स्वभाव के अंश का अनादि से लेकर कभी अभाव नहीं होता। इसी के द्वारा जीव के जीवत्वपने का निश्चय किया जाता है। इस जानने-देखने रूप स्वभाव से नवीन कर्म का बन्ध नहीं होता, क्योंकि यदि निज स्वभाव ही बन्ध का कारण हो तो फिर बन्ध से कभी भी छूटना नहीं हो सकता। इन कर्मों के उदय से जितने ज्ञान-दर्शन-वीर्य अभावरूप हैं, उनसे भी बन्ध नहीं होता है; क्योंकि जिसका स्वयं सद्भाव न हो (अभाव हो), वह अन्य को बन्धादि का कारण नहीं हो सकता; इसलिए ज्ञानावरण-दर्शनावरण-अन्तराय