________________ द्वितीय चर्चा : क्षायोपशमिक भाव : आगम-प्रमाण तथाऽत्रापि केवलज्ञानावरणे सत्यप्येकदेशक्षयोपशमज्ञानापेक्षया नास्त्यावरणम्। __ यावतांशेन निरावरणा रागादिरहितत्वेन शुद्धाच, तावतांशेन मोक्षकारणं भवति / तत्र शुद्धपारिणामिकभावरूपं परमात्मद्रव्यं ध्येयं भवति / तच्च तस्मादन्तरात्मध्यानावस्थाविशेषात्कथंचिद् भिन्नम् / यदैकान्तेनाऽभिन्नं भवति तदा मोक्षेऽपि ध्यानं प्राप्नोति, अथवाऽस्य ध्यानपर्यायस्य विनाशे सति तस्य पारिणामिक भावस्याऽपि विनाशः प्राप्नोति एवं बहिरात्माऽन्तरात्म-परमात्मकथनरूपेण मोक्षमार्गो ज्ञातव्याः। __ अर्थात् वहाँ मोक्ष के कारण का विचार करते हैं - (प्रथम) मिथ्यात्व रागादिरूप बहिरात्म-दशा अशुद्धदशा है, वह मोक्ष की कारण नहीं है तथा (अन्तिम) मोक्षदशा शुद्धफलभूत है, वह आगे प्रगट होती है। __ इन दोनों से भिन्न जो अन्तरात्मदशा है, वह मिथ्यात्व-रागादि से रहित होने के कारण शुद्ध है। जैसे, सूक्ष्म निगोदिया जीव के ज्ञान में शेष आवरण होने पर भी क्षयोपशम-ज्ञानावरण (पर्यायज्ञान' नामक क्षयोपशम को आवरण करने वाला ज्ञानावरण) नहीं है, वैसे यहाँ भी केवलज्ञानावरण होने पर भी एकदेश क्षयोपशमज्ञान की अपेक्षा आवरण नहीं है। जितने अंशों में आवरणरहित और रागादि से रहित होने के कारण शुद्ध है, उतने अंशों में मोक्ष का कारण है। वहाँ शुद्धपारिणामिकभावरूप परमात्मद्रव्य ध्येय है और वह उस अन्तरात्मारूप ध्यानदशा-विशेष से कथंचित् भिन्न है। यदि वह एकान्त से उससे अभिन्न हो तो मोक्ष में भी ध्यान प्राप्त होता है, अथवा इस ध्यान-पर्याय का विनाश होने पर, उस पारिणामिकभाव का भी विनाश प्राप्त होता है।" समीक्षा - अभी-अभी सम्यग्दर्शन के विषय में एक नया चिन्तन, जो कि आगमार्थ के विपर्यास से लगा हुआ लगता है, सुनने-पढ़ने को मिला है - पंचास्तिकाय, गाथा 131 की समयव्याख्या टीका में पुण्य-पाप पदार्थों का वर्णन है, जिसमें मोह (मिथ्यात्व) को अशुभपरिणाम कहा गया है और प्रशस्त राग को शुभ तथा मोह, द्वेष एवं अप्रशस्त राग को अशुभपरिणाम कहा गया है; इस पर से कुछ मनीषी तर्क देकर यह सिद्ध कर रहे हैं कि 'इस (उक्त) विवेचन