________________ क्षयोपशम भाव चर्चा मिथ्या अभिनिवेश है, आगम का अवर्णवाद है। यह सभी आगमविद् जानते हैं कि सम्यक्त्वरहित चारित्र ही नहीं होता है। सर्वार्थसिद्धि (6/21) में 'सम्यक्त्वं च' - इस सूत्र की टीका में स्पष्टरूप से कहा है कि 'सम्यक्त्वाभावे सति तद्व्यपदेशाभावात्तदुभयमप्यत्रान्तर्भवति।' अर्थात् सम्यक्त्व के अभाव में सराग संयम और संयमासंयम नहीं होते, इसलिए उन दोनों का यहीं अन्तर्भाव होता है अर्थात् ये भी सौधर्मादि देवायु के आस्रव के कारण हैं, क्योंकि ये सम्यक्त्व के होने पर ही होते हैं। निश्चय सम्यग्दर्शन को देवायु के आस्रव का कारण कहना, जैसे उपचार (व्यवहार) है, वैसे ही सरागता का उस पर आरोप कर, उसे सराग सम्यग्दर्शन कहना भी उपचार(व्यवहार) मात्र कथन है और वीतरागता का आरोप कर, उसे वीतराग सम्यग्दर्शन कहना भी उपचार(व्यवहार) मात्र कथन है। सम्यग्दर्शन, शुभभावरूप पुण्य तत्त्व नहीं है, जो आसव-बन्ध का साधक हो, वह तो शुद्धभावरूप संवर-निर्जरा तत्त्व है, जो मोक्ष का साधक है। यह तो तत्त्वार्थश्रद्धान की ही भूल है, जो संवर-निर्जरा को पुण्य(शुभ)भावरूप मानतामनवाता है। जिसका तत्त्वार्थश्रद्धान ही सही नहीं है, उसको परमोपेक्षासंयम तो दूर, सराग संयम भी सच्चा नहीं हो सकता है। अतः श्रीमद् कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने चारित्रपाड़, गाथा 10 में कहा है - सम्मत्तचरणभट्ठा, संजमचरणं चरंति जे वि णरा। अण्णाणणाणमूढा, तह विण पावंति णिव्वाणं / / 10 / / अर्थ - जो पुरुष, सम्यक्त्वाचरण चारित्र से भ्रष्ट हैं और संयम का आचरण करते हैं, वे अज्ञान से मूढदृष्टि होते हुए निर्वाण को नहीं पाते हैं अर्थात् सम्यक्त्वाचरण चारित्र के बिना संयमाचरण चारित्र, निर्वाण-प्राप्ति का कारण नहीं है। उक्त सर्व कथन का तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वरूप भाव अर्थात् मिथ्यात्व कर्म के अभाव से जीवों का जो निजभाव प्रगट होता है, वह भाव तो सूक्ष्म है, छद्मस्थ के ज्ञानगोचर नहीं है, तथापि उसके जो बाह्य चिह्न सम्यग्दृष्टि को प्रगट होते हैं, उनसे सम्यक्त्व हुआ जाना जाता है। मुख्य चिह्न तो उपाधिरहित शुद्धज्ञान -चेतनास्वरूप आत्मा की अनुभूति है। यद्यपि यह अनुभूति, एक प्रकार से ज्ञान का (स्वानुभूत्यावरण का) क्षयोपशम