________________ क्षयोपशम भाव चर्चा 3. अनुकम्पा अर्थात् सर्व प्राणियों के प्रति उपकार की बुद्धि, मैत्री भाव और दयार्द्र-चित्त होना। 4. आस्तिक्य अर्थात् सर्वज्ञकथित जीवादि पदार्थों में श्रद्धान होना, क्योंकि नाऽन्यथावादिनो जिनः। संवेग, निर्वेद, आत्म-निन्दा, गर्हा, उपशम, भक्ति, वात्सल्य, अनुकम्पा - ये आठ गुण भी प्रगट होते हैं तथा निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना - ये आठ अंग या लक्षण भी प्रगट हो जाते हैं। इन सबके अलावा सम्यक्त्वाचरण चारित्र के प्रतिफल स्वरूप सम्यग्दृष्टि को 8 मद + 8 शंकादि दोष + 6 अनायतन + 3 मूढ़ताएँ = कुल 25 (पच्चीस) मल दोष नहीं होते हैं। दर्शनपाहड़, गाथा 2 (दंसण मूलो धम्मो ....) की टीका में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने हम सभी सच्चे जिनधर्मानुयायियों को एक नेक (उत्तम) सलाह दी है, उस पर भी हमें ध्यान देना चाहिए। “अनेक लोग कहते हैं कि 'सम्यक्त्व तो केवलीगम्य है, इसलिए अपने को सम्यक्त्व होने का निश्चय नहीं होता; इसलिए अपने को सम्यग्दृष्टि नहीं मान सकते? परन्तु इस प्रकार सर्वथा एकान्त से कहना तो मिथ्यादृष्टि है, सर्वथा ऐसा कहने से व्यवहार का लोप होगा, सर्व मुनि-श्रावकों की प्रवृत्ति, मिथ्यात्वरूप सिद्ध होगी और सब अपने को मिथ्यादृष्टि मानेंगे तो व्यवहार कहाँ रहेगा? __इसलिए परीक्षा होने के पश्चात् ऐसा श्रद्धान नहीं रखना चाहिए कि 'मैं मिथ्यादृष्टि ही हूँ।' मिथ्यादृष्टि तो अन्यमती को कहते हैं और उसी के समान स्वयं भी होगा, इसलिए सर्वथा एकान्त पक्ष ग्रहण नहीं करना चाहिए।" शुभं भूयात्! भद्रं भूयात्!! जयवन्त वर्तो! स्याद्वाद-मुद्रित जैनेन्द्र-शब्दब्रह्म!! शिवाकांक्षी __ ब्र. हेमचन्द जैन, ‘हेम' (भोपाल)