________________ द्वितीय चर्चा : क्षायोपशमिक भाव : आगम-प्रमाण (16) धवला, पु. 1, सूत्र 17, पृष्ठ 186 शंका - यदि ऐसा है तो उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानों में भी 'संयत' पद का ग्रहण करना चाहिए? समाधान - नहीं, क्योंकि दसवें गुणस्थान तक सभी जीव, कषाय सहित होने के कारण, कषाय की अपेक्षा संयतों की असंयतों के साथ सदृश्यता पायी जाती है, इसलिए यथाख्यात संयम के नीचे, दसवें गुणस्थान तक मन्दबुद्धिजनों को संशय उत्पन्न होने की सम्भावना है; अतः संशय के निवारण के लिए संयत विशेषण देना आवश्यक है, किन्तु ऊपर के उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानों में मन्दबुद्धिजनों को भी शंका उत्पन्न नहीं हो सकती है, क्योंकि वहाँ पर संयत क्षीणकषाय अथवा उपशान्तकषाय ही होते हैं; इसलिए वहाँ भावों की अपेक्षा भी संयतों की असंयतों से सदृश्यता नहीं पायी जाती है, अतएव यहाँ पर संयत विशेषण देना आवश्यक नहीं। समीक्षा - वस्तुतः ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों में राग (कषाय) का पूर्णतः उपशम एवं क्षय हुआ होने से चारित्रगुण की पूर्ण वीतरागरूप शुद्ध अवस्था प्रगट हुई होने से 'वीतराग छद्मस्थ' विशेषण लगाये जाते हैं। उक्त आगम-प्रमाणों से यह भलीभाँति सिद्ध हो रहा है कि चारित्र (रागरहित वीतराग अकषायरूप परिणाम) जीव का स्वभाव है और सरागसंयम (सम्यक्त्वाचरण -पूर्वक होनेवाला संयमाचरण) शुभरागरूप-सकषायरूपअपहृतसंयमरूप परिणाम, जीव का स्वभाव तो नहीं है; तथापि उस वीतराग-स्वभावरूप चारित्र की प्राप्ति का बाह्य साधन अवश्य है। इसलिए जिन-दीक्षा-ग्रहण-कर्ता भव्य, निश्चय पंचाचाररूप उस वीतरागचारित्र का साधक-निमित्त होने से व्यवहार पंचाचाररूप ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार, वीर्याचार को, जो कि निश्चयनय से शुद्धात्मा का नहीं है; उसे तब तक अंगीकार करता है, जब तक कि शुद्धात्मा को उपलब्ध न कर ले। इस सरागसंयम को (यदि वह सम्यक्त्वाचरणचारित्र सहित हो तो) व्यवहार चारित्र, भेद रत्नत्रय, अपहृत संयम, सरागचारित्र, शुभोपयोग, पूर्ण इन्द्रिय-संयम व पूर्ण प्राणि-संयम आदि अनेक नामों से कहा जाता है। सामान्यदृष्टि से देखा जाय तो बाह्यनग्नतादिरूप बहिरंग परिग्रहरहित मुनि