________________ 82 क्षयोपशम भाव चर्चा दशा को द्रव्यलिंग तथा मिथ्यात्व-कषायादिरहित, अन्तरंग परिग्रह रहित मुनिदशा को भावलिंग कहा है। ___ परमार्थतः जो मुनिचर्या के योग्य संज्वलन कषाय के उदय से होने वाला अट्ठाईस मूलगुणों के निरतिचार पालनेरूप शुभरागरूप शुभोपयोग है, वह निश्चय से द्रव्यलिंग है और अनन्तानुबन्धी आदि तीन कषाय-चौकड़ी के अनुदय से आत्मा में प्रगट शुद्ध परिणति रूप वीतरागता है, वह निश्चय से भावलिंग है अर्थात् व्यवहार भेदरत्नत्रय रूप आत्मा का सराग-परिणाम ही द्रव्यलिंग है और निश्चय अभेदरत्नत्रय रूप आत्मा का वीतराग-परिणाम ही भावलिंग है; इसे परम-उपेक्षासंयम भी कहते हैं। बस, चारित्रगुण की इस एक मिश्र रूप अवस्था, जिसमें संज्वलन कषाय प्रमाण सरागता तथा तीन कषायों के अनुदय/अभाव रूप वीतरागता होती है, उसको ही 'क्षायोपशमिक-चारित्र' संज्ञा है। वस्तुतः जिस-जिस गुणस्थान में जितने जितने अंशों में चारित्र मोहोदयजन्य कषायें मिटती जाती हैं, उतने-उतने अंशों में उन-उन जघन्य-मध्यम-उत्कृष्ट अन्तरात्माओं में निराकुलत्वलक्षणा आत्मोत्पन्न आत्मिक सुख-शान्तिरूप वीतरागता की उत्पत्ति व वृद्धि होती जाती है और इस वीतरागता रूप अंकुर की उत्पत्ति, जघन्य अन्तरात्मा अविरत सम्यग्दृष्टि' याने चतुर्थ गुणस्थान से प्रारम्भ होकर, वृद्धिंगत होते-होते बारहवें क्षीणमोह जिन' गुणस्थान में पूर्ण शुद्धोपयोग रूप यथाख्यात चारित्ररूप पूर्णता में परिणत हो जाती है। जो इस परमार्थ-स्वरूप वस्तु-स्थिति को नहीं स्वीकारता है, वह बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि ही बना रहता है; इसकी साक्षी समस्त जिनागम में है। एक प्रमाण, प्रवचनसारजी की गाथा 238 (जं अण्णाणि कम्मं खवेदि ....) की तात्पर्यवृत्ति टीका का भावार्थ यहाँ दिया जा रहा है - ___ ".... तत्र मोक्षकारणं चिन्त्यते / मिथ्यात्वरागादिरूपा बहिरात्मावस्था तावदशुद्धा मुक्तिकारणं न भवति / मोक्षावस्था शुद्धफलभूता सा चाग्रे तिष्ठति। एताभ्यां द्वाम्यां भिन्ना यान्तरात्मावस्था, सा मिथ्यात्वरागादिरहितत्वेन शुद्धा। यथा सूक्ष्मनिगोतज्ञाने शेषावरणे सत्यपि क्षयोपशमज्ञानावरणं नास्ति,