________________ द्वितीय चर्चा : क्षायोपशमिक भाव : आगम-प्रमाण (11) प्रवचनसार, तत्त्वप्रदीपिका, गाथा 7 (चारित्तं खलु धम्मो) स्वरूपे चरणं चारित्रं। स्वसमयप्रवृत्तिरित्यर्थः / तदेव वस्तुस्वभावत्वाद्धर्मः। अर्थ - स्वरूप में आचरण करना, रमना सो चारित्र है। स्वसमय में अर्थात् स्वभाव में प्रवृत्ति करना यह इसका अर्थ है। यह वस्तु (आत्मा) का स्वभाव होने से धर्म है। (12) बृहद् नयचक्र, गाथा 356 समदा तह मज्झत्थं, सुद्धो भावो य वीयरायत्तं / तह चारित्तं धम्मो, सहाव आराहणा भणिया / / 356 / / अर्थ - समता, माध्यस्थ, शुद्धभाव (शुद्धोपयोग), वीतरागता, चारित्र, धर्म, स्वभाव की आराधना - ये सब एकार्थवाची हैं। (इसमें संयम, व्रत, समिति, आवश्यक आदि का समावेश नहीं) क्योंकि इनमें पुण्य का परिहार नहीं। (13) मोक्षपाहुड, गाथा 37 जं जाणइ तं णाणं, जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं / तं चारित्तं भणियं, परिहारो पुण्णपावाणं / / 37 / / अर्थ - जो जाने, वह ज्ञान है; जो देखे, वह दर्शन है; और जो पुण्य तथा पाप का परिहार है, वह चारित्र है; इस प्रकार जानना चाहिए। (14) धवला, पु. 14 (16/12) संजम विरईणं को भेदो? ...........महव्वयाणुव्वया विरई। प्रश्न - संयम और विरति में क्या भेद है? उत्तर - समितियों के साथ महाव्रत और अणुव्रत, संयम कहलाते हैं और समितियों के बिना महाव्रत और अणुव्रत, विरति कहलाते हैं। समीक्षा - परमार्थतः आठवें-नौवें-दसवें - इन तीन गुणस्थानों में चारित्र क्षायोपशमिक ही होता है, तथापि प्रतिबन्धक मरण के अभाव में नियम से चारित्रमोह का उपशम करनेवाले एवं क्षय करनेवाले (उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी आरोहणकर्ता) ऋषिराजों को भावी अर्थ में भूतकालीन अर्थ के समान