________________ मंगलाचरण ब्र. हेमचन्द जैन का आगम-गर्भित पत्र आदरणीया धर्मजिज्ञासु बहिन प्रा. सौ. लीलावतीजी जैन, (सम्पादिका, धर्ममंगल) सादर जय-जिनेन्द्र! दर्शन-विशुद्धि!! अत्र स्वाध्याय-ध्यानाऽमृतपान-बलेन कुशलम्, तत्राऽप्यस्तु! जब मैं पुणे आया था तो आपके साथ काफी तत्त्वचर्चा हुई थी, आपको जिनभाषित के सम्पादकीयों के बारे में कुछ शंकाएँ थीं। आपको उस समय तो अधिक समय नहीं दे पाया, परन्तु आपसे जो शंकाएँ, मैं लिखकर लाया था , उन पर तथा जिनभाषित के उन सम्पादकीय लेखों पर विद्वत्-परिषद् के कुछ विद्वानों ने भी ऐसी ही कुछ शंकाएँ मेरे से पूछी हैं। ___ पहले तो कुछ जवाब देने का मन नहीं हुआ। फिर जब उन विद्वानों से भी मेरी प्रत्यक्ष चर्चा हुई - जिनमें सर्वश्री डॉ. राजेन्द्रजी बंसल, ब्र. पं. राजमलजी, ब्र. यशपालजी जैन, डॉ. संजीव गोधा आदि मुख्य हैं और उनकी ओर से भी आपके प्रश्नों पर विस्तृत जवाब देने का सबका आग्रह रहा; अत: उसके जवाब में यह विस्तृत, आगम-प्रमाणपूर्वक चिन्तन, 'क्षयोपशम भाव चर्चा' प्रस्तुत है। ___ हो सकता है कि ये दोनों लेख, इन विषयों का पूर्ण समाधान नहीं दे पाएँ, क्योंकि मैं भी अल्पबुद्धि हूँ, परन्तु आपको अनेकशः धन्यवाद देता हूँ कि इस बहाने मुझे धवलादि ग्रन्थों के माध्यम से उक्त विषयों का पुनः अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ; इसमें मेरा कुछ भी नहीं है, जो कुछ है, वह सब जिनागम का - प्रवचनसार एवं धवलादि ग्रन्थों का है। वही हम सबके लिए शरण्य है। __ खैर! सोचता हूँ, जीवन के इस तृतीय चरण (पडाव) में शान्ति से अपने घर की छाँव में बैठकर, मुझे जिनवाणी का स्वाध्याय, और अधिक गहराई से करते रहना चाहिए, जिससे हमारा आचरण, कम से कम कुछ तो मोह-क्षोभ से रहित हो जाए। पं.श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार की 'मेरी भावना' सब जीवों की भावना भी बन जाए - ऐसी मेरी भी भावना है, अतः आपसे विशेष प्रार्थना है कि आप