________________ 70 क्षयोपशम भाव चर्चा शंका - तथा वह कहता है कि शास्त्रों में परस्पर विरुद्ध कथन तो बहुत हैं, किन किन की परीक्षा की जाए? समाधान - मोक्षमार्ग में देव गुरु धर्म, जीवादि तत्त्व व बन्ध-मोक्षमार्ग प्रयोजनभूत हैं, सो इनकी परीक्षा कर लेना। जिन शास्त्रों में यह सच्चे कहे हों, उनकी सर्व आज्ञा मानना, जिनमें यह अन्यथा प्ररूपित किये हों, उनकी आज्ञा नहीं मानना।" अष्टसहस्री (आप्तमीमांसा की टीका) में आज्ञा प्रधानी से परीक्षा प्रधानी को उत्तम (श्रेष्ठ) कहा है। हाँ, जो पदार्थ, प्रत्यक्ष अनुमानादि गोचर नहीं है और सूक्ष्मपने से जिनका निर्णय नहीं हो सकता, उनका तो आज्ञा-प्रधानी होकर श्रद्धान करना, क्योंकि इसके वक्ता सर्वज्ञ वीतराग हैं, वे अन्यथावादी नहीं होते। ___ जैनदर्शन, किसी भी जीवकोपापों में जाने नहीं देता और पुण्य को धर्ममानने नहीं देता; यद्यपि वह व्यवहार से पुण्य को धर्म कहने देता है, और पापसे बचने के लिए पुण्य करने भी देता है; व्यवहार-दृष्टि से पाप पुण्य में भेद भी है, तथापि निश्चय से दोनों की एक जाति है। यद्यपि पुण्य ऊर्ध्वमुखी है, पाप अधोमुखी है, तथापि दोनों परोन्मुखी हैं, बन्धन-कर्ता हैं / धर्म स्वोन्मुखी है, स्वाश्रय से होता है, संवर-निर्जरा रूप है; इसीलिए कहा है - जिन पुण्य-पाप नहीं कीना, आतम-अनुभव चित दीना / तिन ही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके / / उक्त कथन का सार यही है कि इस जगत् में मिथ्या (गलत) मान्यता जैसी कोई गरीबी नहीं है और सम्यक या सही मान्यता जैसी कोई अमीरी नहीं है। सर्व दुःखों की जड़ एकमात्र मिथ्या मान्यता ही है, शेष सब कथन मात्र ही है।' परीक्षाप्रधानी बनने हेतु स्व. मुनिराज श्री वीरसागरजी मुनिवर, सदैव सामयसारादि अध्यात्म ग्रन्थों के स्वाध्याय प्रेमियों को प्रेरणा देते थे कि वे परीक्षामुख, न्यायदीपिका, प्रमेयरत्नमाला, अष्टसहस्री, श्लोकवार्तिक आदि न्याय ग्रन्थों को अवश्य पढ़ें। क्योंकि न्याय ग्रन्थ, द्रव्यानुयोग के ही शास्त्र हैं; उससे प्रमाणज्ञान नयज्ञान, कारणकार्य व्यवस्था, भलीभाँति समझ में आती है। 'ॐ सहज चिदानन्द' दिनांक 27.08.2007 - ब्र. हेमचन्द जैन, हेम' (देवलाली)