________________ सच्चे परीक्षा-प्रधानी बनो! जिणसत्थादो अटे, पच्चक्खादीहिं बुज्झदो णियमा। खीयदि मोहोवचयो, तम्हा सत्थं समधिदव्वं / / अर्थात् जो जिन-शास्त्र (सर्वज्ञ-प्रणीत आगम) द्वारा प्रत्यक्षादि प्रमाणों से पदार्थों को याथातथ्यरूप से जानता है, उसका मोहोपचय नियम से क्षय को प्राप्त हो जाता है; इसलिए शास्त्र का (जिनवाणी/जिनागम का) सम्यक् प्रकार से अध्ययन करना चाहिए अर्थात् तत्त्वों को सही-सही भावभासनपूर्वक जानना चाहिए। तात्पर्यवृत्ति टीका - “कोई भव्य, वीतराग सर्वज्ञदेव द्वारा कथित शास्त्र से 'एक मेरा शाश्वत आत्मा' इत्यादिरूप से परम (उत्कृष्ट) आत्मा का उपदेश देनेवाले श्रुतज्ञान द्वारा सर्वप्रथम आत्मा को जानता है और उसके बाद विशिष्ट अभ्यास के वश से परम समाधि के समय रागादि विकल्पों से रहित मानस प्रत्यक्ष (स्व संवेदन प्रत्यक्ष) से उसी परम आत्मा को जानता है अथवा उसी प्रकार से उसे अनुमान से जानता है। जैसे, निश्चयनय से इस वर्तमान शरीर में ही शुद्ध बुद्ध एक स्वभाववान् परम उत्कृष्ट आत्मा (त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा) है। शंका - ‘शरीर में ही निज परमात्मा है' - यह कैसे जाना? समाधान - जैसे, सुखादि का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होता है, उसी प्रकार निर्विकार स्व संवेदन प्रत्यक्ष से शरीर में ही निज परमात्मा को जाना जाता है। इसी प्रकार अन्य पदार्थ भी यथासम्भव आगम-अभ्यास के बल से उत्पन्न प्रत्यक्ष ज्ञान अथवा अनुमान ज्ञान से जाने जाते हैं; इसलिए भव्य मोक्षार्थी को आगम का अभ्यास अवश्य करना चाहिए - यह तात्पर्य है।" ___आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी, मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 216 पर इस विषय में शंका-समाधान प्रस्तुत करते हैं - "शंका - 'छद्मस्थ से अन्यथा (प्रकार से) परीक्षा हो जाए तो वह क्या करे?' समाधान - सच्ची झूठी दोनों वस्तुओं को कसने से और प्रमाद छोड़कर परीक्षा करने से सच्ची ही परीक्षा होती है, जहाँ पक्षपात के कारण भले प्रकार परीक्षा न करें, वहाँ अन्यथा परीक्षा होती है।