Book Title: Kshayopasham Bhav Charcha
Author(s): Hemchandra Jain, Rakesh Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad Trust

View full book text
Previous | Next

Page 79
________________ 74 क्षयोपशम भाव चर्चा में 'मिश्रभाव', क्षायोपशमिक भाव के लिए ही आया है। जैसे, शीतकाल में हम लोग गर्म पानी से नहाते हैं तो वह पानी वस्तुतः शीतोष्ण(मिश्र)रूप ही होता है, न अधिक गर्म कि जिससे जल जायें, न अधिक शीतल कि जिससे सर्दी लग जाये। आचार्यश्री - यह उष्ण पानी वाला दृष्टान्त, तुम्हारे पं. राजमलजी ने भी दिया था। देखो, समझो, क्षायोपशमिक-भाव को बलात् औदयिक-भाव सिद्ध मत करो। ब्र. हेमचन्द - ठीक है महाराजजी ! मैं इस विषय पर पुनिर्विचार करूँगा, वैसे मैं ‘मिश्रभाव' को औदयिक नहीं मानता हूँ। आचार्यश्री! कुछ वाचालतावश अविनय हुई हो तो क्षमा चाहता हूँ। महाराजजी! अन्त में मैं अपनी एक आन्तरिक पीड़ा, जो जिनवाणी के अविनय/अनादर से सम्बन्धित है, आपके सामने रखना चाहता हूँ। आपने 1977-78 में नैनवाँ (राजस्थान) में और गौहाटी (आसाम) में सोनगढ़/ जयपुर से प्रकाशित समयसारादि ग्रन्थों को जल/बावड़ी में डलवाये जाने से व्यथित होकर, मेरे एवं स्व. पण्डित श्री जगन्मोहनलालजी शास्त्री (कटनी) के अनुरोध/ निवेदन करने पर एक वक्तव्य दिया था, जो उससमय सभी पत्र-पत्रिकाओं में छपा था कि 'जिनवाणी कहीं से भी प्रकाशित क्यों न हो? उसका बहिष्कार-तिरस्कार, अविनय / अनादर रंच मात्र भी नहीं होना चाहिए, क्योंकि उसमें णमोकार मन्त्र एवं पूर्वाचार्यों की मूल गाथाएँ / सूत्र छपे होते हैं; अन्यथा महा पाप-बन्ध होने से कुगति-गमन होगा।' ब्र. हेमचन्द एवं पं. राकेश शास्त्री - अगर आपकी अनुमति हो तो हम आपके इस वक्तव्य को आपके नाम से पुनः छपवा दें? आचार्यश्री - नहीं, मैं इस विषय पर अभी कुछ नहीं कहना चाहता। आप लोग पुण्य को हेय बतला कर, लोगों को पाप में धकेल रहे हो। ब्र. हेमचन्द - नहीं, ऐसा नहीं है महाराजजी! यह कथन, तत्त्व-दृष्टि की अपेक्षा से किया गया है ..... / खैर, कुछ गलती हुई हो तो क्षमा कीजिए आचार्यश्री! (विशेष टिप्पणी - और भी शुद्धोपयोग आदि विविध विषयों पर बहुत देर तक चर्चा हुई थी, परन्तु ‘क्षायोपशमिक-भाव'के सम्बन्ध में इतनी ही चर्चा हुई थी, अतः अन्य चर्चा को यहाँ विस्तार-भय से टाल रहा हूँ। - ब्र. हेमचन्द जैन हेम'

Loading...

Page Navigation
1 ... 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178