________________ Ull द्वितीय चर्चा क्षायोपशमिक भाव : आगम-प्रमाण (1) धवला, पु. 5 (4/194) पडिबंधिकम्मोदए संते ..... खओवसमिओ। अर्थ - प्रतिबन्धी कर्म का उदय होने पर, जो जीव के गुण का अवयव पाया जाता है, वह गुणांश क्षायोपशमिक कहलाता है, क्योंकि गुणों के सम्पूर्णरूप से घातने की शक्ति का अभाव क्षय' कहलाता है / क्षयरूप ही जो ‘उपशम' होता है, वह 'क्षयोपशम' कहलाता है। उस क्षयोपशम में उत्पन्न होनेवाला भाव क्षायोपशमिक कहलाता है। (2) धवला, पु. 12 (254/457) ण च सुहुम ....... सण्णाणुवत्तीदो वा। अर्थ - सूक्ष्म साम्परायिक गुणस्थान में मोहनीय का भाव नहीं हो - ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि भाव के बिना द्रव्यकर्म के रहने का विरोध है। अथवा वहाँ भाव के न मानने पर 'सूक्ष्म साम्परायिक' यह संज्ञा ही नहीं बनती है। (3) कषायपाहुड, 1/1 (पृ. 60) तं च कम्मं सहेअं ........... विरायदादो। अर्थ- जीव से सम्बद्ध कर्म को सहेतुक ही मानना चाहिए, अन्यथा निर्व्यापार अर्थात् अयोगियों के भी कर्मबन्ध का प्रसंग प्राप्त हो जायेगा / (वस्तुतः) उस कर्म के कारण मिथ्यात्व, असंयम और कषाय हैं; सम्यक्त्व, संयम व वीतरागता नहीं। (4) धवला, पु. 7 (49/92) सव्वघादिफद्दयाणि.......खओवसमो णाम। अर्थ - सर्वघाति स्पर्द्धक, अनन्तगुणे हीन होकर और देशघाती स्पर्द्धकों में