________________ 72 क्षयोपशम भाव चर्चा पुण्य-पाप दोनों प्रकार की प्रकृतियों का आस्रव-बन्ध एक समय में हो रहा होता है। उदाहरणार्थ, क्षायिक सम्यग्दृष्टि - राजा श्रेणिक के जीव को अभी नरक में अन्य नारकियों से लड़ते वक्त भी तीर्थंकर-महापुण्य-प्रकृति के बन्धकेसाथ अन्य ज्ञानावरणादि घातियारूप पाप-प्रकृतियों का भी बन्ध होता है। इस प्रकार ऐसी परिस्थिति में मिश्रयोग से हुआ कार्य कहा जा सकता है। लेकिन पुण्य-पाप का भेद, अघातिया-प्रकृतियों में ही है, घातिया तो एकान्ततः पाप-प्रकृतियाँ ही हैं। आचार्यश्री - अच्छा, तो तुम शुभ या अशुभ योग के काल में पुण्य व पाप, दोनों प्रकार की प्रकृतियों के युगपत् होनेवाले आस्रव-बन्ध को मिश्रयोग से हुआ कार्य मानते हो? ___ ब्र. हेमचन्द - हाँ ! मैंने तो ऐसा ही समझा है महाराजजी! करणानुयोग का विशेष अभ्यास तो मुझे है नहीं। आचार्यश्री - अच्छा! अब दूसरी बात पूछता हूँ। तुम मुनिराज के कौनसा चारित्र प्रगट हुआ मानते हो? ब्र. हेमचन्द - मुनिराज के? आचार्यश्री - हाँ, ज्ञानी मुनिराज की बात पूछ रहा हूँ। उनका कौनसा चारित्र होता है? ब्र. हेमचन्द - जी, ज्ञानी भावलिंगी मुनियों को (छठे-सातवें गुणस्थान में) क्षायोपशमिक-चारित्र होता है। आचार्यश्री - उस क्षायोपशमिक चारित्र से संवर-निर्जरा होती है या नहीं? ब्र. हेमचन्द - होती है, अवश्य होती है, गुण-श्रेणी-निर्जरा होती है, निरन्तर होती रहती है। आचार्यश्री - और क्षायोपशमिक-चारित्र महाव्रतों के बिना होता नहीं, अतः महाव्रतों से संवर-निर्जरा होती है, यह बात स्पष्टरूप से सिद्ध हो जाती है - ऐसा मानते हो या नहीं? ब्र. हेमचन्द - नहीं मानता महाराजजी ! क्योंकि महाव्रत पालने का भाव संज्वलन के उदय से होनेवाला शुभभाव है, उससे तो पुण्य-बन्ध होता है। महाव्रतरूप सरागचारित्र से निर्जरा कहना, उपचार-कथन-मात्र है।