________________ प्रथम चर्चा आचार्यश्री विद्यासागरजी के साथ चर्चा [श्री दि. जैन अतिशय क्षेत्र, रामटेक (नागपुर) में 20 सितम्बर 1994, क्षमावाणी दिवस पर आचार्य श्री विद्यासागरजी मुनि महाराज के साथ ब्र. हेमचन्द जैन 'हेम' (भोपाल) की, डॉ. राकेश जैन शास्त्री, जैनदर्शनाचार्य (नागपुर) की उपस्थिति में हुई तत्त्वचर्चा] आदरणीया धर्मबहिन लीलावतीजी, आपने पूछा था कि क्या कभी क्षायोपशमिक भाव / मिश्रभाव के बारे में मेरी आचार्यश्री से प्रत्यक्ष चर्चा हुई है? - यदि नहीं हुई तो प्रत्यक्ष में जाकर एक बार कर लेनी चाहिए; तब मैंने आपको कहा था कि ‘हाँ! चर्चा हुई थी'; उसी चर्चा का सार संक्षेप, आपके कहने पर यहाँ साक्षात्कार की शैली में प्रस्तुत कर रहा हूँ - ब्र. हेमचन्द - आचार्यश्री ! पिछले वर्ष मैंने मोक्षमार्गप्रकाशक का अंग्रेजी अनुवाद की प्रकाशित प्रति आपके अवलोकनार्थ/समालोचनार्थ भिजवायी थी, तत्सम्बन्ध में अनुवाद आदि सम्बन्धी कोई त्रुटि हो तो जरूर बताइए। ___आचार्यश्री - आपने अनुवाद बहुत अच्छा किया है। ऐसी कोई त्रुटि, उसमें नहीं दिखी। हाँ, तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ कि पण्डित टोडरमलजी ने पृ.27 पर जो ‘मिश्रयोग' होने की बात लिखी है, उससे तुम क्या समझे? क्योंकि एक काल में तो एक ही शुभ या अशुभ योग होता है? ब्र. हेमचन्द - आचार्यश्री! वस्तुतः एक समय में एक ही शुभ या अशुभ योग होता है, तथापि मैं अल्पमति ऐसा समझता हूँ कि मन-वचन-काय की चेष्टा से आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दरूप जो योग है, उसमें यदि मात्र मन, शुभ-क्रियारूप आचरण छोड़कर, अशुभ विचार (विकल्प) में चला गया तो मिश्र योग बन सकता है, क्योंकि वचन और काया से तो पूजा-भक्तिरूप या शुभ-क्रियारूप योग चल रहा होता है, अथवा अशुभ क्रिया में प्रवर्तते समय मन वैराग्यरूप कुछ शुभभावरूप चिन्तवन में चला जाए तो भी मिश्रयोग कहा जा सकता है, क्योंकि उसमें घातिया-अघातियारूप