________________ क्षयोपशम भाव चर्चा भावार्थ - अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यात्वभाव को मोह कहते हैं और पदार्थों को इष्ट अनिष्ट मानकर, उनसे प्रीति अप्रीति करना राग-द्वेष है, अतः अतत्त्वश्रद्धान से ही पदार्थ इष्ट अनिष्ट भासित होते हैं; इसलिए जैसे, वृक्ष की जड़ और अंकुर का मूल कारण बीज है, वैसे राग द्वेष का मूल कारण मोह को जानना चाहिए। __ जैसे, अग्नि, बीज को जलाती है, वैसे, ज्ञान, मोह का नाश करता है। ज्ञान से जीवादि तत्त्वों का यथार्थ स्वरूप जानने पर अतत्त्वश्रद्धान का नाश हो जाता है, इसलिए तत्त्वज्ञान के अभ्यास में तत्पर रहना चाहिए। इतना करने से सर्व सिद्धि स्वयमेव हो जाती है। ___सामान्य से सर्व संसारी जीवों के अनादि-सम्बन्धे च।' (तत्त्वार्थसूत्र, 2/ 41) - इस सूत्रानुसार, तैजस और कार्मण - ये दो शरीर, अनादि से सम्बन्ध रखनेवाले हैं। विशेष की अपेक्षा पहले के शरीरों का सम्बन्ध नष्ट होकर, उनके स्थान में नये-नये शरीरों का सम्बन्ध होता रहता है। जीव से सम्बद्ध ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के समूह को ‘कार्मण शरीर' कहते हैं। उनमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय - ये चार घातिकर्म हैं, तथा वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु -ये चार अघातिकर्म हैं; इनमें 'ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय' - इन तीन घातिकर्मों की उदय, क्षय और क्षयोपशम - ये तीन अवस्थाएँ ही होती हैं और 'मोहनीयकर्म' (जिसके दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय - ये दो भेद हैं), उसकी ‘उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम' - ये चारों अवस्थाएँ होती हैं। शेष चारों अघातिकर्मों की ‘उदय और क्षय' - ये दो ही अवस्थाएँ होती हैं। ____ 1. स्थिति को पूरी करके कर्मों के फल देने को 'उदय' कहते हैं और कर्मों के उदय के निमित्त से जीव का जो मलिन भाव होता है, उसे औदयिकभाव कहते हैं; इसके गति, जाति, लिंग आदि 21 भेद होते हैं। 2. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से मोहनीयकर्म की शक्ति के प्रगट न होने को ‘उपशम' कहते हैं और दर्शन-मोह व चारित्र-मोह - इन कर्मों के उपशम से आत्मा का जो निर्मल भाव होता है, उसे औपशमिकभाव कहते हैं; इसके दो भेद हैं - औपशमिक-सम्यक्त्व एवं औपशमिक-चारित्र।