________________ मंगलाचरण : ब्र. हेमचन्द जैन का आगमगर्भित पत्र इस विषय पर अन्य विद्वानों से भी चर्चा कर, समाधान प्राप्त कर लीजिए तथा अगर उचित लगे तो प्रकाशित करें, ताकि मुझे और सबको भी लाभ मिले। श्रीमद् आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित आप्तमीमांसा की प्रत्येक कारिका मंगलाचरणस्वरूप है, अतः तत्त्ववेत्ता भक्त कह उठता है - स त्वमेवाऽसि निर्दोषो, युक्तिशास्त्राऽविरोधिवाक् / अविरोधो यदिष्टं ते, प्रसिद्धेन न बाध्यते / / 6 / / अर्थ - ( हे वीर जिनेन्द्र भगवान!) वह निर्दोष (सर्वज्ञ) आप ही हैं, क्योंकि आपके वचन युक्ति शास्त्र से अविरोधी हैं और यह अविरोध, इस तरह से लक्षित होता है कि आपका जो इष्ट है अर्थात् जीवादि तत्त्वों की प्ररूपणारूप जो आपका अनेकान्त-शासन है, वह प्रत्यक्षादि किसी प्रसिद्ध (प्रमाण) से बाधित नहीं होता है। जैनदर्शन, जन-जन का दर्शन है। बस, सम्यक्श्रद्धा और सम्यक्चारित्र की दो मात्रा लगते ही वह व्यक्ति, 'जन' से 'जैन' बन जाता है। किसी को भी जनमत या बहुमत से धर्म का निर्णय नहीं करना चाहिए। धर्म का निर्णय तो जिनमत से या जिनागम से अर्थात् चारों अनुयोगों से करना चाहिए। जो व्यवहार-धर्मकार्य अभव्य भी कर सकता है, यदि वही कार्य, भव्य जीव भी कर दिखाये तो उसमें उनके भव्यत्व की भव्यता क्या रही? वस्तुतः तत्त्व निर्णय बिना तत्त्वज्ञान ही सच्चा नहीं होता। तत्त्वज्ञान बिना शुद्धात्माभिमुखउपयोगरूप आत्मध्यान नहीं होता और आत्मध्यान बिना स्वानुभवरूप निश्चयसम्यग्दर्शन भी प्रगट नहीं होता। सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान व चारित्र भी सम्यक् नहीं होते। आत्मानुशासन, श्लोक 182 में संसार का बीज मोह को कहा है - मोह-बीजादति-द्वेषौ, बीजान्मूलांकुराविव। तस्माज्ज्ञानाऽग्निना दायं, तदेतौ निर्दिधिक्षुणा।।182।। अर्थ - जैसे, बीज से वृक्ष की जड़ और अंकुर होता है, वैसे मोहरूपी मूल कारण (अज्ञान) से आत्मा को राग-द्वेष होते हैं; इसलिए जो जीव, राग-द्वेष का नाश करना चाहते हैं, उन्हें ज्ञानरूपी अग्नि से मोह को दग्ध करना चाहिए।