________________ प्रस्तावना : क्षयोपशम भाव के सम्बन्ध में निष्कर्ष उचित है, इस अपेक्षा आठवें से दशवें गुणस्थान तक पूर्ण शुद्धोपयोग भी नहीं है, वास्तव में अबुद्धिपूर्वक रागांश विद्यमान होने से पण्डित टोडरमलजी के शब्दों में शुभोपयोग ही है, शुद्धोपयोग नहीं; यही कारण है कि वहाँ यथाख्यात-चारित्र भी नहीं माना गया है। इस प्रकार यदि श्रेणी में भी शुभोपयोग मानेंगे तो वहाँ क्षयोपशमभाव भी मानना अनुचित नहीं है, लेकिन आचार्यों ने वहाँ शुद्धोपयोग कहा है तो उस कारण उपचार से चारित्र का औपशमिकभाव या क्षायिकभाव भी माना है; इसीलिए जिनागम में निश्चय-व्यवहारनय की सन्धि मिलाना अत्यन्त आवश्यक है। लेकिन यदि हम निश्चय-व्यवहारनय के परिज्ञान से च्युत हो जाते हैं तो हमें तत्त्वज्ञान के रहस्यों को सुलझाना भी कठिन हो जाता है। __ श्रेणी में बुद्धिपूर्वक राग का सद्भाव नहीं होने से शुद्धोपयोग माना गया है - इसी नियम से चौथे-पाँचवें गुणस्थान में भी यदा-कदा सामायिकादि के काल में बुद्धिपूर्वक राग का अभाव होने से कभी-कभी शुद्धोपयोग मानना योग्य है। अधिकांशतः बुद्धिपूर्वक राग का सद्भाव होने से चौथे-पाँचवें गुणस्थान में अधिकांशतः शुद्धोपयोग नहीं है - ऐसा मानना योग्य है, लेकिन सर्वथा इन गुणस्थानों में शुद्धोपयोग होता ही नहीं - ऐसा मानना योग्य नहीं है। इस प्रकार इन गुणस्थानों में मुख्यता से शुद्धोपयोग नहीं है, शुभोपयोग है अथवा गौणरूप से शुद्धोपयोग भी है। इसी प्रकार आगे के सातवें से दशवें गुणस्थान तक मुख्यतया शुद्धोपयोग है और गौणता से शुभोपयोग या कषायांश भी है तथा ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में मुख्य-गौण का प्रश्न ही नहीं है अर्थात् सर्वथा शुद्धोपयोग ही है, शुभोपयोग बिल्कुल नहीं - ऐसा मानना उचित है। अन्त में हम कह सकते हैं कि क्षयोपशमभाव में जितने अंश, मोहनीय के उपशम या क्षय के निमित्त से हैं, उतना शुद्धोपयोग; तथा जितने अंश देशघाति के उदय के निमित्त से हैं, उतने अंश में शुभोपयोग या रागांश है - ऐसा मानना चाहिए अर्थात् गुणस्थान-परिपाटी में जहाँ जैसा योग्य है, उसी अनुपात में आस्रवबन्ध-संवर-निर्जरा की व्यवस्था मानना चाहिए। - डॉ. राकेश जैन शास्त्री, जैनदर्शनाचार्य, नागपुर