________________ 58 क्षयोपशम भाव चर्चा उसे वीतराग-चारित्र या शुद्धोपयोग कहते हैं और उसकी मुख्यता से पण्डित टोडरमलजी ने उस भाव (अंश) से संवर-निर्जरा मानी है। जैसे, अंशकल्पना के अनुसार सम्यग्दृष्टि के शुभभाव को स्वर्ग का भी कारण मानें और मोक्ष का भी; तथा उसके वीतरागभाव को संवर-निर्जरा का भी कारण मानें और आस्रव-बन्ध का भी; अर्थात् एक ही भाव को संसार का भी कारण मानें और मोक्ष का भी कारण मानें? इसमें कारण-विपर्यास आदि दोष अवश्य आएँगे? पुरुषार्थसिद्ध्युपाय की पण्डित मक्खनलालजी शास्त्री कृत टीका में स्पष्ट लिखा है - ___“यदि एकदेश गुणों की प्रगटता, एकदेश कर्मबन्ध का कारण होगी तो उनकी सर्वथा प्रगटता पूर्णरूप से कर्मबन्ध का कारण होना चाहिए।....जिसके जितना अधिक रागभाव है, उसी के अधिक कर्मबन्ध होता है, जिसके रागभाव की मात्रा कुछ कम है, उसके कर्मबन्ध भी कम होता है। जैसे, योगीजन बहुत अंशों में कषायभावों को नष्ट कर देते हैं, इसलिए उनके कर्म का भार भी बहुत हल्काहो जाता है।....अत: जिसके जितने अंश में रागभाव है, उतने अंश में कर्मबन्ध है। अर्थात् रागादि अशुद्धपरिणाम ही कर्मबन्ध का हेतु हैं, आत्मा के निजी गुण कर्मबन्ध के कारण नहीं हो सकते।.....जब पूर्ण रत्नत्रय कर्मबन्ध का कारण नहीं है तो उसका एकदेश भी कर्मबन्ध का कारण नहीं हो सकता। जिसके सर्वदेश का जैसा स्वभाव है, उसके एकदेश का भी वही स्वभाव होगा।' 27-33. आचार्यों ने सातवें गुणस्थान में तो स्पष्टतः क्षायोपशमिक-चारित्र ही माना है, जबकि श्रेणी-आरोहण करते समय सातवें गुणस्थान में सातिशयअप्रमत्त -अवस्था में अध:करण-परिणाम होने लगते हैं, तथापि चारित्र का क्षयोपशमभाव ही माना गया है। लेकिन आठवें से दशवें गुणस्थान तक यद्यपि स्पष्टतः उपशम-श्रेणी या क्षपक-श्रेणी में चारित्र-मोह के उपशम या क्षय का उद्यम चालू हो गया है, श्रेणी चालू हो गई है, इस कारण उपचार से चारित्र का औपशमिकभाव या क्षायिकभाव माना है, तथापि चारित्र-मोह का सम्पूर्ण उपशम या क्षय, क्रमशः ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में ही होता है, अतः उसके पूर्व वास्तव में क्षयोपशमभाव ही मानना