________________ 56 क्षयोपशम भाव चर्चा विस्तार-भय से विराम देते हैं। 22. समयसार की गाथा 87-90 और उनकी टीकाओं में अनादिकाल से उपयोग के मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरतिरूप तीन प्रकार की दशाएँ स्वीकार की हैं, जो मूलत: पठनीय हैं। यहाँ मात्र मूल गाथाओं का ही उल्लेख करते हैं - मिच्छत्तं पुण दुविहं, जीवमजीवं तहेव अण्णाणं। अविरदि जोगो मोहो, कोहादीया इमे भावा।।87।। पोग्गलकम्म मिच्छं, जोगो अविरदि अणाणमजीवं। उवओगो अण्णाणं, अविरदि मिच्छं च जीवो दु।।88।। उवओगस्स अणाई, परिणामा तिण्णि मोहजुत्तस्स। मिच्छत्तं अण्णाणं, अविरदिभावो य णादव्वो।।89।। एदेसु य उवओगो, तिविहो सुद्धो णिरंजणो भावो। जं सो करेदि भावं, उवओगो तस्स सो कत्ता।।90।। अर्थात् मिथ्यात्व दो प्रकार का है - जीव-मिथ्यात्व और अजीव-मिथ्यात्व। इसी प्रकार अज्ञान, अविरति, योग, मोह, क्रोध आदि भावों को भी दो-दो प्रकार का जानना चाहिए।। 87 / / जो मिथ्यात्व, योग, अविरति, अज्ञान आदि अजीव हैं, वे पुद्गलकर्म हैं और जो मिथ्यात्व, अविरति, अज्ञान आदि जीव हैं, वे उपयोगरूप हैं।।88।। मोहयुक्त उपयोग के अनादि से तीन परिणाम हैं - मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति; ऐसा जानना चाहिए।। 89 / / यद्यपि अनादि से उपयोग, ऐसे तीन प्रकार के परिणामविकाररूप हो रहा है, तथापि (शुद्धनय से) वह शुद्ध, निरंजन, एक भावरूप है; वह उपयोग, जिस समय जिस भाव को स्वयं करता है, उस समय उस भाव का कर्ता होता है। इसी प्रकार प्रवचनसार गाथा 157-158 एवं उनकी दोनों टीकाओं में शुभोपयोग-अशुभोपयोग आदि से श्रद्धागुण और चारित्रगुण का स्पष्टतया सम्बन्ध सिद्ध किया है। इनसे उपयोग का सम्बन्ध स्वीकार करने के बाद इनमें भी परिणति -उपयोग की व्यवस्था भी बन जाएगी। जैसे, शुद्धोपयोग के समय परिणति में