________________ प्रस्तावना : क्षयोपशम भाव के सम्बन्ध में निष्कर्ष 55 19. आचार्य जयसेन एवं ब्रह्मदेव सूरि ने जगह-जगह निश्चय-सम्यक्त्व को निश्चय-चारित्र का अविनाभावी कहा गया है? इसमें उनका तात्पर्य यह है कि स्वरूप-लीनता की अवस्था में ही निश्चय-सम्यक्त्व होता है। इनका अविनाभावीपना भी यही है कि स्वरूप-लीनता के बिना निश्चय-सम्यक्त्व और निश्चय-सम्यक्त्व के बिना स्वरूप-लीनता नहीं हो सकती - यही उनकी परस्पर अविनाभाविता है। साथ ही यह तो नियम समग्र जिनागम को मान्य है कि सम्यक्त्व के बिना चारित्र नहीं होता, वह नियम यहाँ भी लागू होगा ही। इस विषय को समझने के लिए करणानुयोग का एक नियम विशेष ध्यान देने योग्य है - जब श्रेणी आरोहण होता है, वह निश्चय-चारित्र का स्पष्टतः काल है, क्योंकि उस काल में शुक्ल-ध्यान भी होता ही है। लेकिन यदि कोई जीव उस समय निश्चय-सम्यक्त्व में नहीं है तो उसे उस समय निश्चय-सम्यक्त्व में आना अनिवार्य है। जैसे, यदि उपशम-श्रेणी का आरोहण है तो क्षायिक-सम्यक्त्व या द्वितीयोपशम सम्यक्त्व करना उसके पहले ही अनिवार्य होता है। इसी प्रकार यदि क्षपक-श्रेणी का आरोहण है तो क्षायिक-सम्यक्त्व उसके पहले ही अनिवार्य होता है; अत: इससे भी निश्चय-सम्यक्त्व और निश्चय-चारित्र की परस्पर अविनाभाविता सिद्ध होती है। ___20-21. शुभोपयोग आदि तीन भेद, करणानुयोग-पद्धति में इसी प्रकार घटित नहीं होते, इसमें उपयोग के अशुद्ध-विशुद्ध-शुद्ध - ऐसे तीन भेद तो घटित हो जाते हैं। विशुद्धता में भी तीव्र-मन्द की अपेक्षा अनेक भेद भी बन जाते हैं। करणानुयोग में शुभ्र-अशुभ के भेद इसलिए भी नहीं बन पाते हैं, क्योंकि वहाँ शुभोपयोग (4 से 6 गुणस्थान) के समय भी अशुभ-घातिकर्मों आदि का बन्ध होता है और अशुभोपयोग (1 से 3 गुणस्थान) के समय भी उसकी मन्दता हो तो शुभ-कर्मों का बन्ध भी होता है - यह सब करणानुयोग-सम्मत विषय हैं। ___करणानुयोग-पद्धति में तो मुख्यरूप से उपयोग के ज्ञान-दर्शनात्मक भेदों को स्वीकार किया गया है। उपयोग के ज्ञान-दर्शनात्मक भेदों से इन तीन भेदों को मिलाने पर भी अनेक भंग बन जाएंगे। फिर उन ज्ञान-दर्शनात्मक भेदों में लब्धिउपयोग की व्यवस्था करने पर और भी भंग बनेंगे। इन सबकी चर्चा को यहाँ