________________ 66 क्षयोपशम भाव चर्चा पुराणमित्येव न साधु सर्वं, न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्। सन्तः परीक्ष्यान्तरद्भजन्ते, मूढः परप्रत्ययनेय बुद्धिः।।1/2।। अर्थात् सभी पुराना अच्छा और सभी नया बुरा नहीं होता। समझदार व्यक्ति दोनों (नये और पुराने) की परीक्षा करके, उनमें से जो समीचीन हो; उसे ग्रहण करते हैं। मूढ़ नासमझ व्यक्ति ही दूसरे के कथनमात्र से विश्वास करता है। आचार्य अमितगति, अमितगति श्रावकाचार में परीक्षा का महत्त्व' दर्शाते हुए लिखते हैं - लक्ष्मीविधातुं सकलां समर्थं, सुदुर्लभं विश्वजनीनमेनम्। परीक्ष्य गृह्णन्ति विचारदक्षाः, सुवर्णवद्वंचनभीतचित्ताः।।1/29।। अर्थात् विचारवान पुरुष तो सर्व समर्थ लक्ष्मी प्रदान करानेवाले धर्म को ठगाये जाने के भय से सुवर्ण की तरह भलीभाँति परीक्षा करके ही ग्रहण करते हैं। जयपुर के प्रकाण्ड विद्वान् पण्डित श्री चैनसुखदासजी ने 'प्रवचन प्रकाश' नामक संकलन ग्रन्थ में मंगलाचरण में ही 'महादेव स्तोत्र', श्लोक 44 को उद्धृत करते हुए लिखा है कि हमारा नमस्कार किसको होना चाहिए? - भवबीजांकुरजननाः, रागाद्यः क्षयमुपगताः यस्य / ब्रह्मा वा विष्णु र्वा, हरो जिनो वा नमस्तस्मै / / अर्थात् जिसने संसार के कारणभूत रागादि को क्षय कर दिया है, उसे ही मेरा नमस्कार हो। चाहे वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो, हर हो या जिन (जिनेन्द्रदेव) हो। समस्त जैनों की बाईबिल के नाम से प्रसिद्ध तत्त्वार्थसूत्र अपरनाम मोक्षशास्त्र के मंगलाचरण में आचार्यप्रवर श्रीमद् उमास्वामी ने व्यक्ति विशेष की वन्दना न करते हुए, उस व्यक्ति के वीतरागी सर्वज्ञ हितोपदेशीस्वरूप व्यक्तित्व को नमस्कार किया है, जिसमें ये गुण हों, वे भगवान हमारे लिए पूज्य हैं। किसलिए? कि उन जैसे गुण मुझमें भी प्रगट हों। वह इसप्रकार है मोक्षमार्गस्य नेतारं, भेत्तारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां, वन्दे तद्गुणलब्धये।। अर्थात् जो मोक्षमार्ग के नेता हैं, कर्मरूपी पर्वतों के भेत्ता (भेदनेवाले) हैं और सर्व तत्त्वों के ज्ञाता हैं; उनको मैं उन जैसे गुणों की प्राप्ति के लिए प्रणाम करता हूँ।