________________ क्षयोपशम भाव चर्चा 'औदयिक-भाव' की संज्ञा देना उचित माना जा सकता है। आगम में इस गुणस्थान को दर्शन-मोह की विवक्षा के अन्तर्गत माना गया है, अतः चारित्र-मोह के सम्बन्ध में वह मौन है, इसका अर्थ यह कदापि नहीं मानना चाहिए कि वहाँ चारित्र का 'औदयिक-भाव है। चारित्र के सम्बन्ध में मौन रहने का अर्थ औदयिक' कैसे हो सकता है। हाँ, हम यह तो अवश्य कह सकते हैं कि वहाँ अप्रत्याख्यानावरणीय और प्रत्याख्यानावरणीय प्रकृति के उदय-निमित्तक असंयम या अविरति होती है, लेकिन उसका अर्थ अनन्तानुबन्धी के अभाव को भी अविरति कैसे कह सकते हैं, उसे तो चारित्र ही कहना चाहिए, जिसे आचार्य भगवान ने सम्यक्त्वाचरण-चारित्र नाम दिया भी है। यही कारण है कि धवला के अनुवादक, पंचाध्यायीकार, बरैयाजी आदि ने सम्यक्त्वाचरण-चारित्र को स्वरूपाचरण-चारित्र माना है, जो अनन्तानुबन्धी-कषाय के अभाव से प्रगट होता है - यही सम्यक्त्वाचरण-चारित्र का निश्चयसम्यक्त्वाचरण-चारित्र है और उसका व्यावहारिक विकल्पात्मक-चारित्र, जो कि आठ अंग, 25 दोषों के अभाव आदिरूप व्यवहार-सम्यक्त्वाचरण-चारित्र होता है, जिसका विस्तार से वर्णन चारित्रपाहुड की 20 गाथाओं तक किया गया है। जैसे, पंचमादि गुणस्थानों में निश्चय-व्यवहार चारित्र होता है, उसी प्रकार यहाँ भी अवश्य जानना चाहिए। जैसे, द्वितीय गुणस्थान में दर्शन-मोहनीय का पारिणामिकभाव माना गया है। वैसे, आगम में चतुर्थ गुणस्थान में चारित्र का पारिणामिकभाव तो नहीं माना गया है। इसका कारण यह है कि आगम, चतुर्थ गुणस्थान को दर्शन-मोहनीय की विवक्षा के अन्तर्गत स्वीकार करता है, अत: वह चारित्र-मोहनीय की विवक्षा को गौण कर रहा है। यद्यपि आगम, चतुर्थ गुणस्थान में अविरति को स्वीकार करता है, उसे औदयिक मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है-, लेकिन वह अविरति को अप्रत्याख्यानावरण एवं प्रत्याख्यानावरण-कषाय के उदय-जनित औदयिक मानता है, अनन्तानुबन्धी-जनित नहीं; अनन्तानुबन्धी जनित अविरति प्रथम और द्वितीय गुणस्थान में ही मान्य है।