________________ प्रस्तावना : क्षयोपशम भाव के सम्बन्ध में निष्कर्ष इसी प्रकार राजवार्तिककार ने जो क्षायिक-सम्यक्त्व को वीतराग-सम्यक्त्व' स्वीकार किया है, उसमें भी दर्शन-मोह का समूल नाश करने की अपेक्षा उसे वीतराग कहा गया है, लेकिन उन्होंने उपशम-सम्यक्त्व और क्षयोपशम-सम्यक्त्व को वीतराग नहीं माना है, उसका कारण भी यही है कि वहाँ दर्शन-मोह का समूल नाश नहीं हुआ है, अभी वह सत्ता में विद्यमान है - इस अपेक्षा उसे वीतरागसम्यक्त्व भी नहीं कहा गया है, सराग-सम्यक्त्व कहा है। 10. इस प्रकार तीन उपयोगों की व्याख्या, यथायोग्य दर्शन-मोह और चारित्र-मोह की मुख्यता से करना चाहिए। ___11. पहले ही यह अच्छी तरह सिद्ध कर दिया गया है; अत: जो क्षायिक सम्यक्त्व, सिद्धों की अवस्था तक जाता है, वह शुभोपयोग परिणाम द्वारा कैसे हो सकता है? वह शुद्धोपयोग परिणाम द्वारा ही हो सकता है। ___12-14. स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द भगवान ने अष्टपाहुड के चारित्रपाहुड में चारित्र के दो भेद बताये हैं - सम्यक्त्वाचरण-चारित्र और संयमाचरण-चारित्र। उसमें से आगम में संयमाचरण-चारित्र की अपेक्षा तो चारित्र के क्षयोपशमादि समस्त भेद घटित हो जाते हैं, लेकिन सम्यक्त्वाचरण-चारित्र को उनमें से चारित्र का कौनसा भाव माना जाए? - यह घटित नहीं किया गया है; इस कारण सर्वत्र भ्रम व्याप्त है, लेकिन यदि इस पर विचार किया जाए तो इसका ही मार्ग स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द भगवान ने चारित्रपाहुड के इस कथन से स्पष्ट निकल रहा है। जिस प्रकार पंचम गुणस्थानवर्ती के चारित्र को संयमासंयम' नामक क्षयोपशम भाव स्वीकार किया गया है, जिस प्रकार तृतीय गुणस्थान को ही सम्यक्त्व की अपेक्षा मिश्र' (क्षायोपशमिक) गुणस्थान स्वीकार किया गया है; उसी प्रकार चतुर्थ गुणस्थान की इस अवस्था को जब सम्यक्त्वाचरण-चारित्र माना गया है तो उसे करणानुयोग के आधार पर कोई न कोई चारित्र का भाव तो मानना ही होगा, भले ही उसे संयम न माना जाए, लेकिन चारित्र का भाव मानना तो आवश्यक है ही। ____ आगम में भी चतुर्थ गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी-कषाय का अभाव तो माना ही गया है, अब उसे ही निश्चय-व्यवहारनय-सम्मत सम्यक्त्वाचरण-चारित्र भी माना ही जाना चाहिए, जिसे स्पष्टत: अविरति नहीं कहा जा सकता और न ही उसे