________________ 44 क्षयोपशम भाव चर्चा ज्ञान में और उसके फलरूप स्व-संवेदन-ज्ञान में तथा अट्ठाईस मूल-गुणों में अथवा निश्चय मूलगुण के आधाररूप परमात्म-द्रव्य में उद्यत होता हुआ सर्वकाल आचरण करता है, वह पूर्ण मुनि होता है। यहाँ यह भाव है कि जो निज शुद्धात्मा की भावना में रत होते हैं, उन्हीं के पूर्ण मुनिपना हो सकता है। साधु महाराज, शुद्धात्मा की भावना के सहकारी शरीर की स्थिति के हेतु से प्रासुक आहार लेते हैं, सो भक्त (आहार या भोजन करना) है। ..... निर्विकल्प समाधि को प्राप्त करने के लिए उपवास करते हैं, सो क्षपण है। ..... शुद्धात्मा की भावना के सहकारी कारण आहार, नीहार आदि व्यवहार के लिए व देशान्तर के लिए गमन करना, सो विहार है। शुद्धोपयोग की भावना के सहकारी कारणरूप शरीर, ज्ञान का उपकरण शास्त्र, शौच का उपकरण कमण्डलु, दया का उपकरण पिच्छिका आदि उपधि (परिग्रह) है। .... इत्यादि। ___ (प्रवचनसार गाथा 214-215 की आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति टीका का पण्डित श्री अजितकुमारजी शास्त्री एवं पण्डित श्री रतनचन्दजी मुख्तार कृत हिन्दी भाषानुवाद, प्रकाशक, श्री भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वद् परिषद्) ___ * अशुद्धोपयोगो हि छेदः, शुद्धोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य छेदनात्, तस्य हिंसनात्, स एव च हिंसा; अतः श्रमणस्याऽशुद्धोपयोगाऽविनाभाविनी शयनाऽऽसन-स्थान-चंक्रमणादिष्वऽप्रयता या चर्या, सा खलु तस्य सर्वकालमेव सन्तान-वाहिनी छेदानऽर्थान्तरभूता हिंसैव। अर्थात् अशुद्धोपयोग, वास्तव में छेद है, क्योंकि उससे शुद्धोपयोगरूप श्रामण्य का छेदन होता है; और वह अशुद्धोपयोग ही हिंसा है, क्योंकि उससे शुद्धोपयोगरूप श्रामण्य का हिंसन होता है; इसलिए श्रमण के जो अशुद्धोपयोग के बिना नहीं होती - ऐसे शयन-आसन-स्थान-गमन इत्यादि में अप्रयत (प्रयत्न रहित असावधान) चर्या, वह वास्तव में उसके लिए सर्वकाल में (सदा) ही सन्तान-वाहिनी (सतत/निरन्तर/धारावाही) हिंसा ही है, जो कि छेद से अनन्यभूत है। (अर्थात् वह छेद से कोई भिन्न वस्तु नहीं है।) (प्रवचनसार गाथा 216 की आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका टीका) * अयमऽत्राऽर्थः - स्वस्थ-भावना-रूप-निश्चय-प्राणस्य विनाशकारणभूता रागादि-परिणतिर्निश्चय-हिंसा भण्यते, रागाद्युत्पत्ते-र्बहिरंग