________________ प्रस्तावना : क्षयोपशम भाव के सम्बन्ध में निष्कर्ष के अनुसार) व्यवहारिक कार्यों (वैयावृत्यादि) में प्रवृत्त रहते हैं, उन्हें शुभोपयोगी' कहते हैं और जो मुनिराज अधिकांशतया (भावों की तरतमता के अनुसार) व्यावहारिक कार्यों से निवृत्त रहते हैं, ध्यान-अध्ययन में ही तल्लीन रहते हैं, उन्हें 'शुद्धोपयोगी' कहते हैं। मुनियों की शुभोपयोगी तथा शुद्धोपयोगी - ये संज्ञाएँ, गुणस्थानाधारित नहीं हैं, क्योंकि गुणस्थान के आधार पर व्यावहारिक संज्ञाएँ या व्यावहारिक प्रवृत्तियों का कथन-व्यवहार सम्भव नहीं है। 4. शुद्धोपयोग के सर्वथा अभाव में मुनिपना कदापि सम्भव नहीं है। यदि फिर भी उसे सम्भव मानेंगे तो उनकी भावलिंगी संज्ञा किसी भी प्रकार से नहीं की जा सकेगी अर्थात् उन्हें द्रव्यलिंगी संज्ञा ही प्राप्त होगी। इस सन्दर्भ में प्रवचनसार की चरणानुयोग-चूलिका में गाथा 213 से 219 तक यह बात अच्छी तरह सिद्ध की गई है कि 'शुद्धोपयोग के अभाव में मुनिराज की कोई भी व्यावहारिक क्रिया सम्यक् नहीं हो सकती है। यद्यपि इस प्रकरण को मूलतः आचार्य अमृतचन्द्र एवं आचार्य जयसेन की टीकाओं के साथ पढना अनिवार्य है-, तथापि पाठकों के लाभार्थ इसके कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत हैं - ___ * ..... 'सामण्णे' निज-शुद्धात्मानुभूति-लक्षण-निश्चय-चारित्रे..... अर्थात् अपने शुद्धात्मा के अनुभवनरूपी निश्चयचारित्र-स्वरूप मुनिपद में रहते हए....... (प्रवचनसार गाथा 213 की आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति टीका) * जो श्रमण, सदा ज्ञान-दर्शनादि में प्रतिबद्ध होकर, मूलगुणों में प्रयत्नशील आचरण करता है, वह परिपूर्ण श्रामण्यवान् होता है। (प्रवचनसार गाथा 214) * एक स्वद्रव्य से सम्बन्ध ही उपयोग का मार्जन करनेवाला है। (प्रवचनसार गाथा 214 की आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका टीका) * जो मुनि, सम्यग्दर्शन को मुख्य लेकर, नित्य सम्यग्ज्ञान के आधीन होता हुआ और मूलगुणों में प्रयत्न करता हुआ आचरण करता है, वह पूर्ण यति हो जाता है। जो लाभ-अलाभ आदि में समान चित्त को रखनेवाला श्रमण, तत्त्वार्थ-श्रद्धान और उसके फल-स्वरूप निश्चय-सम्यग्दर्शन में जहाँ एक निज शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है - ऐसी रुचि होती है; तथा वीतराग-सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए परमागम के