________________ 48 क्षयोपशम भाव चर्चा 6. शुभोपयोग को यदि हम सम्यक्-मिथ्यापने से जोडते हैं तो सम्यक्शुभोपयोग सम्यग्दृष्टि को ही सिद्ध होता है, लेकिन यदि हम सामान्य शुभोपयोग की बात करते हैं तो वह मिथ्यादृष्टि को भी सम्भव है; अन्यथा नवमें ग्रैवेयक में जानेवाले द्रव्यलिंगी मुनि भी शुभोपयोगी नहीं कहला सकते। इस प्रकार सामान्यतया शुभलेश्या-शुभयोग-शुभभाव वाले जीव भी शुभोपयोगी कहलाता सकते हैं। ____7. गुणस्थान-परिपाटी के अनुसार शुभोपयोग-अशुभोपयोग शुद्धोपयोग की व्याख्या को द्रव्यानुयोग की मुख्यता से समझना चाहिए, क्योंकि यहाँ उपयोग में अभिप्राय को एवं तारतम्य-कथन को मुख्य करके स्थूल स्याद्वाद-शैली का प्रयोग किया गया है। जबकि प्रवचनसार गाथा 9 की तात्पर्यवृत्ति टीका में कहा है - मिथ्यात्वाऽविरति-प्रमाद-कषाय-योग-पंच-प्रत्यय-रूपाऽशुभोपयोगेनाऽशुभो विज्ञेयः। ___अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - इन पाँच प्रत्ययरूप अशुभोपयोग से परिणत जीव को अशुभ जानना चाहिए - यह कथन, करणानुयोग की सूक्ष्मता लिए हुए प्रतीत होता है, क्योंकि इसमें योग-निमित्तक ईर्यापथ-आस्रव की विद्यमानता के कारण तेरहवें गुणस्थान तक अशुभोपयोग माना है। इसी प्रकार सूक्ष्म लोभ की विद्यमानता के कारण आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने आठवें अध्याय में दशवें गुणस्थान तक सूक्ष्म राग होने से 'शुभोपयोग' माना है, उनके ही शब्दों में कहें तो - ___ "उपयोग के शुभ, अशुभ, शुद्ध - ऐसे तीन भेद कहे हैं; वहाँ धर्मानुरागरूप परिणाम, वह शुभोपयोग; पापानुरागरूप व द्वेषरूप परिणाम, वह अशुभोपयोग; और राग-द्वेष रहित परिणाम, वह शुद्धोपयोग - ऐसा कहा है, सो इस छद्मस्थ के बुद्धिगोचर परिणामों की अपेक्षा वह कथन है। करणानुयोग में कषाय-शक्ति की अपेक्षा गुणस्थानादि में संक्लेश-विशुद्ध परिणामों की अपेक्षा निरूपण किया है, वह विवक्षा यहाँ नहीं है। करणानुयोग में तो रागादि रहित शुद्धोपयोग यथाख्यात-चारित्र होने पर होता