________________ प्रस्तावना : क्षयोपशम भाव के सम्बन्ध में निष्कर्ष क्षयोपशम भाव के सम्बन्ध में निष्कर्ष सन् 1994 के बाद इतने वर्षों के अध्ययन-चिन्तन-मनन एवं अनेक विशेषज्ञविचारणाओं के आधार पर उक्त समस्त प्रश्नों के सम्बन्ध में यही प्रतीत होता है कि हमें नय-दृष्टि एवं स्याद्वाद का प्रयोग करके ही अपनी सभी जिज्ञासाओं का समाधान खोजना चाहिए, अन्यथा सरल से सरल शंका का समाधान करना भी मुश्किल हो जाता है। ___हमें अभेदवृत्ति-अभेदोपचार एवं भेदवृत्ति-भेदोपचार की विवक्षाओं को समझना होगा। अतः सीधे-सीधे हम कह सकते हैं कि यदि क्षयोपशमभाव का अभेदवृत्तिअभेदोपचार से विचार किया जाए तो मिश्रभाव होने के कारण उसे कर्म के आस्रव -बन्ध एवं संवर-निर्जरा, सभी का निमित्त-कारण कह सकते हैं, लेकिन यदि उसका विचार भेदवृत्ति-भेदोपचार से किया जाए तो हमें स्पष्टतः अंश-कल्पना करना ही श्रेयस्कर होगा अर्थात् जितना-जितना सर्वघाति-स्पर्द्धकों के क्षयोपशम-निमित्तकशुद्धभाव है, उतना-उतना संवर-निर्जरा का हेतु है और जितना-जितना देशघातिस्पर्द्धकों के उदय-निमित्तक अशुद्धभाव है, उतना-उतना आस्रव-बन्ध का हेतु है। (येनांशेन सुदृष्टिः .....इत्यादि, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, आचार्य अमृतचन्द्र) अब यदि व्यवहारनय की अपेक्षा उपचार-कथनों का विचार किया जाए तो मिश्रभाव होने से विकारी-अविकारी दोनों अंशों में परस्पर व्यवहार-प्रति-व्यवहार करने की प्रवृत्ति भी अनुचित नहीं है। जैसे, सम्यग्दर्शन, जो निश्चय से मोक्ष का कारण है, उसे स्वर्गादि पुण्य-बन्ध का कारण कहना, व्यवहार है। (सम्यक्त्वं च - तत्त्वार्थसूत्र, 6/21) / अथवा व्रतादि का शुभभाव, जो निश्चय से पुण्य-बन्ध का कारण है, उसे मोक्ष का कारण कहना, व्यवहार है। (स गुप्ति-समिति-धर्माऽनुप्रेक्षापरिषहजय-चारित्रैः - तत्त्वार्थसूत्र, 9/2) / इस प्रकार जिनागम में प्रयुक्त ये सब व्यवहारनय के ही प्रयोग हैं। __यहाँ यह भी नहीं समझना चाहिए कि उक्त व्यवहार-कथन सर्वथा असत्य ही हैं, उनके प्रयोगों में भी सकारणता है, अकारणता नहीं। उसके कारण, ज्ञानियों की 4-5-6 गुणस्थान की विभिन्न अवस्थाओं में अलग-अलग अपेक्षाओं से अलगअलग स्थितियाँ घटित होती हैं।