________________ 40 क्षयोपशम भाव चर्चा मूल ग्रन्थ का निम्न उद्धरण देखें - चित्त-कलुषत्व-स्वरूपाऽऽख्यानमेतत् - क्रोध-मान-माया-लोभानां तीव्रोदये चित्तस्य क्षोभः कालुष्यम्। तेषामेव मन्दोदये तस्य प्रसादोऽकालुष्यम्। 'तत् कादाचित्क-विशिष्ट-कषाय-क्षयोपशमे सत्यज्ञानिनो भवति।' कषायोदया -ऽनुवृत्तेरसमग्र-व्यावर्तितोपयोगस्याऽन्तर-भूमिकासु कदाचित् ज्ञानिनोऽपि भवतीति। __ अर्थात् यह चित्त की कलुषता के स्वरूप का कथन है - क्रोध, मान, माया, और लोभ के तीव्र उदय से चित्त का क्षोभ, सो कलुषता है। उन्हीं के मन्द उदय से चित्त की प्रसन्नता, सो अकलुषता है। वह अकलुषता, कदाचित् कषाय का विशिष्ट (खास प्रकार का) क्षयोपशम होने पर, अज्ञानी को होती है; कषाय का अनुसरण करनेवाली परिणमन में से उपयोग को पूर्ण विमुख न किया हो, तब (अर्थात् कषाय के उदय का अनुसरण करनेवाले परिणमन में से उपयोग को पूर्ण विमुख न किया हो तब) मध्यम भूमिकाओं में (मध्यम गुणस्थानों में) कदाचित् ज्ञानी को भी होती है। (पंचास्तिकाय, गाथा 138 की आचार्य अमृतचन्द्रकृत टीका) इस प्रकरण के अनुसार क्या अज्ञानी को भी क्षयोपशमभाव होता है? 3. इसी प्रकार प्रवचनसार गाथा 9 की तात्पर्यवृत्ति में कहा है - मिथ्यात्वा-ऽविरति-प्रमाद-कषाय-योग-पंच-प्रत्यय-रूपाऽशुभोपयोगेनाऽशुभो विज्ञेयः। अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग - इन पाँच प्रत्ययरूप अशुभोपयोग से परिणत जीव को अशुभ जानना चाहिए।' यहाँ प्रश्न है कि मिथ्यात्व को छोड कर, अविरति-प्रत्यय तो सम्यग्दृष्टि एवं पंचम गुणस्थानवर्ती व्रती श्रावक को भी होता है, प्रमाद-प्रत्यय तो भावलिंगी मुनिराज को भी छठे गुणस्थान में होता है, कषाय-प्रत्यय तो श्रेणी-आरोहण करनेवाले तपस्वियों को भी होता है, योग-प्रत्यय तो अरहन्त-अवस्था में भी होता है तो क्या इन सबको भी अशुभोपयोग माना जाएगा तथा अरहन्तादि अवस्थाओं को प्रत्ययों के कारण में भी अशुभ मानना उचित है क्या? यदि नहीं तो इस प्रकरण का अर्थ/मन्तव्य क्या निकाला जाए?