________________ 38 क्षयोपशम भाव चर्चा का ग्रन्थ बतला कर, उपादेय नहीं मानते, वे भी कहीं न कहीं मिथ्यात्व भाव के शिकार/पोषक हैं - ऐसा समझना चाहिए। अस्तु! 20-9-94 को आचार्यश्रीजी ने जो मुझ पर अनुकम्पा कर, मुझे अपना अमूल्य समय तत्त्व-चर्चार्थ प्रदान किया था, तदर्थ मैं उनका हृदय से आभारी एवं कृतज्ञ हूँ। मेरी भावना है कि यदि वे ग्रन्थराज समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार तथा अष्टपाहुड़, इन ग्रन्थों का, उन पर उपलब्ध सभी आचार्यों की टीकाओं का स्वाध्याय, आदि से अन्त करा देवें, उसका प्रारम्भ करें और अपनी ओर से कुछ भी नहीं जोड़ें तो मैं भी समय निकाल कर, उस स्वाध्याय-वाचना में पूरे समय उपस्थित रह कर स्वाध्याय करना चाहँगा। अपनी ओर से कुछ भी नहीं जोड़ने की बात से मेरा तात्पर्य मात्र इतना ही है कि जिस प्रकार प.पू. जयसेनाचार्यदेव ने आगम एवं अध्यात्म दोनों भाषाओं/ विवक्षाओं से टीकाएँ लिखी हैं, समझाया है; अतः वही हम सबको सर्वमान्य होना चाहिए। उक्त आध्यात्मिक ग्रन्थों के अलावा मेरी भावना आगम ग्रन्थों गोम्मटसार, धवला, जयधवला आदि के भी विस्तार से पढ़ने की है, किन्तु इसके लिए करणानुयोग-विशेषज्ञ चाहिये, समय चाहिये, श्रम चाहिये / शाब्दिक परिभाषाओं का ज्ञान भी चाहिये। श्री गुरु गोपालदासजी बरैया रचित जैन सिद्धान्त प्रवेशिका से काफी कुछ सामान्य जानकारी शाब्दिक परिभाषाओं की हो जाती है; अत-: घर पर जितना बन पाता है, उतना स्वाध्याय किया ही करता हूँ। चर्चा में यदि कुछ भूल, अपराध (प्रमादजन्य) हुए हों, उन सबके लिए मैं आचार्यश्री से एवं आपसे भी हृदय से क्षमा चाहता हूँ।" आपका अपना ब्र. हेमचन्द जैन, भोपाल/देवलाली दिनांक : 11-4-94 इस पत्र-व्यवहार के बाद मेरा कुछ परिचय आदरणीय पण्डित रतनलालजी शास्त्री, इन्दौरवालों से भी हुआ तो मैंने उन्हें उक्त पत्राचार की एक कॉपी प्रेषित की, साथ ही कुछ और प्रश्न भी उन्हें भेजे, जो निम्न प्रकार हैं -