________________ क्षयोपशम भाव चर्चा की प्रतिदिन उपासना/पूजन करते हैं। ___(3) सोनगढ़, जयपुर से छपे शास्त्रों में तत्त्व-विरुद्ध प्ररूपणा होती है - जैसे, उसमें शुभोपयोग को हेय बतलाया है, अधर्मभाव तक कहा है; अत: इस विषय का आगम-अध्यात्म के आलोक में हम निर्णय करते हैं - श्री योगीन्दुदेव ने योगसार में 'पुण्यतत्त्व भी पाप है, बिरला जाने कोय।' - ऐसा लिखा है, जिसका मतलब है कि राग (शुभ से भी) वीतराग (शुद्धभाव) नहीं प्रगटता; क्योंकि रागभाव, वीतरागभाव (धर्म) का प्रतिपक्षी है। रागभाव से बन्ध एवं वीतरागभाव से निर्बन्धता (संवर-निर्जरा) होती है: अतः श्रद्धान को सम्यक् बनाने के लिए ज्ञान में सर्वप्रथम यह दो ट्रक निर्णय होना चाहिये कि ‘शुभ हो या अशुभ-कामना, राग, बन्ध की डोरी है, आकुलता की पोरी है।' हाँ, यह बात जरूर है कि जब भी शुद्ध/वीतरागभाव प्रगटेगा, वह शुभोपयोगपूर्वक ही प्रगटेगा; अतः उपचार से शुभोपयोग को शुद्धोपयोग का कारण कहा जाय तो बाधा नहीं, किन्तु इस व्यवहार-कथन को ही परमार्थ/निश्चय-कथन या कारण न मान लिया जाए, अन्यथा तत्त्व-विरुद्धता होगी, क्योंकि यदि शुभास्रवबन्धभाव को ही संवर-निर्जरा मान लिया जाएगा तो वीतरागभाव की पहिचान ही खो जाएगी अर्थात् अतत्त्व-श्रद्धान ही बना रहेगा; अतः आचार्यश्री को मुमुक्षुओं के सम्बन्ध में उक्त भ्रम दूर कर लेना चाहिए। यद्यपि सोनगढ़-जयपुर-विचारधारावाले विद्वानों में अध्यात्म-ग्रन्थों के अभ्यास में विशेष रुचि देखी जाती है, क्योंकि 'आत्मा' को ही समझना है और आत्माओं को ही समझाना है, न कि जड़-कर्मों को; फिर भी वे ज्ञान की निर्मलता हेतु सभी आगम-अध्यात्म ग्रन्थों का स्वाध्याय करते ही हैं। मेरी दृष्टि में आचार्यश्री की समूचे दि. जैन समाज की एकता की परिकल्पना तब तक पूर्ण नहीं हो सकती, जब तक वे सोनगढ़-जयपुर से प्रकाशित आगमअध्यात्म ग्रन्थों का जिन-मन्दिरों से हो रहे निष्कासन को नहीं रुकवाते। आज पूरे भारतवर्ष को आचार्यश्री के प्रति (उनकी संयम एवं तत्त्वाभ्यास/स्वाध्याय के प्रति दृढ़ता के कारण) गर्व एवं आदरभाव है, किन्तु जब तक वे मिथ्यात्व की