________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' अकिंचित्करता, शुभोपयोग को संवर-निर्जरा स्वरूप मानने एवं सोनगढ़/जयपुर से छपे शास्त्रों के बहिष्कार/निष्कासन का समर्थन करते रहेंगे, तब तक एकता सम्भव नहीं है। यद्यपि जिनवाणी के अविनय, बहिष्कार, निष्कासन की पीड़ा/वेदना आचार्यश्री को भी है तो फिर वे सन् 1977-78 की भाँति एक आदेश/उपदेश/ सन्देश, समाज के नाम से क्यों नहीं पुनः निकाल देते हैं, जिससे अभी इसी वर्ष आरोन (गुना, म.प्र.) में उनके ही शिष्यगणों द्वारा सोनगढ़/जयपुर साहित्य को मन्दिरजी से निकलवाये जाने की घटना की पुनरावृत्ति नहीं हो। ___मैं भी आगम-अध्यात्म ग्रन्थों के अभ्यास में अन्तःकरण से तीव्र रुचि रखता हूँ और निष्पक्षभाव से तत्त्वार्थों का स्वरूप समझना चाहता हूँ। जो अभी तक 1966 से 1994 तक 28 वर्षों में मैंने सत्समागम द्वारा जो तत्त्वज्ञान-श्रद्धान सम्पादित किया है, उसमें कहीं भी मूल में भूल नहीं दिखाई दी। व्यवहार-चारित्र भी (द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावों की अनुकूलता अनुसार) धारण करने की तीव्र इच्छा/ भावना है। एतदर्थ विभिन्न धर्मायतनों में जा-जाकर देखा तो कहीं अकेले ज्ञान/अध्यात्मप्रधान-शैली ही मुख्य/सर्वस्व हो रही है और कहीं व्यवहार-क्रिया-आचरण/ आगम-प्रधान-शैली ही मुख्य/सर्वस्व हो रही है; इस प्रकार दोनों ओर खींच है। कहाँ जाया जाये? पण्डित बनारसीदासजी का छन्द याद आता है - जो बिनु ज्ञान क्रिया अवगाहै, जो बिनु क्रिया मोक्ष पद चाहै। जो बिनु मोक्ष कहै मैं सुखिया, सो अजान मूढनि में मुखिया / / इसी प्रकार श्रीमद् राजचन्द्रजी कृत 'आत्म-सिद्धि' में भी एक पद है - कोई क्रिया जड़ थई रहा, शुष्क ज्ञान मां कोई। माने मारग मोक्ष नो, करुणा उपजै जोई।। __ आचार्यकल्प पण्डित-प्रवर टोडरमलजी ने हम साधारण बुद्धि जीवों के हितार्थ अपने जीवन का उत्सर्ग/बलिदान कर, जिनागम का सार समझाने वाला चारों अनुयोगों के कथनों में परस्पर सामंजस्य स्थापित कर, दोष कल्पनाओं का निराकरण देने वाला, अपूर्व ग्रन्थ श्री मोक्षमार्गप्रकाशक लिखा है; उसे जो ‘पण्डित'