________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' 23 (स्थिति-बन्ध के मूल कारण व विशेष कारण : इस विभाजन का आधार धवल 11, 309 अन्तिम पैराग्राफ है।) निष्कर्ष - इस प्रकार मिथ्यात्व ही नहीं, सभी मूल प्रकृतियाँ उदित होकर स्थिति-बन्ध की विशेष कारण बनती हैं। उन उदित प्रकृतियों से जो जीव-परिणाम होवें, वे स्थिति-बन्ध के विशेष कारण हैं, यह कथनाभिप्राय है।) उक्त चार्ट का हेतुभूत आगम निम्न है - सव्व-मूल-पयडीणं सग-सग-उदयादो समुप्पण्ण-परिणामाणं सग-सगट्ठिदि-बंध-कारणत्तेण ट्ठिदि-बंधझवसाण-ट्ठाण-सण्णिदाणं एत्थ गहणं कायव्वं। (धवला, 11/310) अर्थात् समस्त मूल प्रकृतियों के अपने-अपने उदय से समुत्पन्न परिणामों की ही अपनी-अपनी स्थिति के बन्ध में कारण होने से, उन्हीं की स्थिति-बन्धाध्यवसानस्थान-संज्ञा है - ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये; अतः मात्र कषायोदय-स्थान ही स्थिति-बन्धाध्यवसान-स्थान नहीं है। विशेष - यदि यह कहा जाय कि अनन्तानुबन्धी के निमित्त से बँधनेवाली 25 प्रकृतियाँ दूसरे गुणस्थान वाली हैं। वे फिर मिथ्यात्वी की प्रथम आवली में कैसे बँधेगी, क्योंकि वहाँ उस आवली-काल में 25 प्रकृतियों के बन्ध की हेतुभूत अनन्तानुबन्धी तो उससमय है नहीं? तो इसका उत्तर यह है कि उस सम्यक्त्व से पतित प्रथम आवली कालवर्ती मिथ्यात्वी के मिथ्यात्व-परिणाम तथा असंयत-परिणाम - ये दो प्रत्यय तो हैं ही। उनसे ही वह मिथ्यात्व-सम्बन्धी 16, सासादन सम्बन्धी 25 तथा असंयत सम्यक्त्व-सम्बन्धी 10 प्रकृतियों का बन्ध कर लेगा। कहा भी है - ___सासादने पच्चीस-प्रकृतीनां अविरति-प्रत्ययः प्रधानभूतः / कथम्भूतः? अविरतयः कारणभूताः। (पंचसंग्रह/शतक गाथा 488, सुमतिकीर्ति की टीका) अर्थात् सासादन-सम्बन्धी 25 प्रकृति के बन्ध का कारण अविरति है। तथा अविरति का सदभाव आवली-कालवर्ती मिथ्यात्वी के भी होने से उस मिथ्यात्वी के मिथ्यात्व, अविरति, शेष कषायें व योग से प्रथम व द्वितीय गुणस्थान सम्बन्धी प्रकृतियों का बन्ध, अनन्तानुबन्धी के उदय बिना भी हो जाता है।