________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' 29 भी हो तथा वही संवर-निर्जरा का कारण भी हो - ऐसा सम्भव नहीं है। जैसे, शुभभाव, वही स्वर्ग का भी कारण है और वही मोक्ष का भी: वही संवर-निर्जरा का भी कारण और वही आस्रव-बन्ध का भी; वही संसार का भी कारण और वही मोक्ष का भी कारण कैसे बनेगा? क्या ऐसा मानने में कारण-विपर्याय आदि दोष नहीं आयेंगे? ___27. यहाँ एक प्रश्न और है कि 8-9-10 गुणस्थान तक चारित्र का कौनसा भाव है; वास्तव में यहाँ क्षयोपशमभाव ही मानना चाहिए। यद्यपि उपशम या क्षपकश्रेणी में चारित्रमोह के उपशम या क्षय का उद्यम चालू हो गया है, श्रेणी चालू है, तथापि चारित्रमोह का सम्पूर्ण उपशम या क्षय, क्रमशः 11-12 गुणस्थान में ही होता है, अतः उसके पूर्व क्षयोपशम ही मानना उचित है, फिर 8-9-10 गुणस्थानों में भी शुद्धोपयोग कैसे बनेगा, वहाँ भी ‘शुभोपयोग' ही मानना होगा। 28. लेकिन यदि श्रेणी में भी शुभोपयोग मानेंगे तो आचार्यों ने तो शुद्धोपयोग कहा हैं। क्या यहाँ बुद्धिपूर्वक उपयोग शुभ है या शुद्ध है, इससे निर्णय करेंगे? या शुद्धोपयोग की ओर उन्मुख होने से उसे शुभोपयोग मानेंगे? ___29. यदि हम कहते हैं कि वहाँ बुद्धिपूर्वक राग का सद्भाव नहीं होने से शुद्धोपयोग माना गया है तो प्रश्न यह है कि 4-5-6 गुणस्थान में भी यदा-कदा सामायिक के काल में बुद्धिपूर्वक राग का अभाव होने से कभी-कभी शुद्धोपयोग मानना योग्य है। _____30. यदि हम कहें कि वहाँ अधिकांशतः बुद्धिपूर्वक राग का सद्भाव होने से अधिकांशतः शुद्धोपयोग नहीं है तो हमें ऐसा ही मानना चाहिये। 4-5-6 गुणस्थान में शुद्धोपयोग होता ही नहीं - ऐसा नहीं मानना चाहिये। ____31. हम ऐसा भी कह सकते हैं कि 4-5-6 गुणस्थान में मुख्यता से शुद्धोपयोग नहीं है, शुभोपयोग है अथवा गौणरूप से शुद्धोपयोग भी है। ___32. इसी प्रकार आगे के 7 से 10 गुणस्थान तक मुख्यतया शुद्धोपयोग है और गौणता से शुभोपयोग है तथा 11-12 गुणस्थान में मुख्य-गौण का प्रश्न ही नहीं है अर्थात् शुद्धोपयोग ही है, शुभोपयोग बिल्कुल नहीं। 33. अथवा क्षयोपशभाव की स्थिति में जो अंश उपशम या क्षय के हैं,