________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' 4. जिनागम के अनुसार आठों कर्मों में मात्र मोहनीय-कर्म का पूरा परिवार (दर्शनमोहनीय + चारित्रमोहनीय) ही जीव को मन्द-तीव्र स्थिति-अनुभाग बन्ध का हेतु है। 5. संक्षेप में मिथ्यात्व, कषाय (अविरति, प्रमाद, कषाय) एवं योग - यह तीन मूल द्रव्य-भाव-प्रत्यय ही जीव को कर्म-बन्ध के हेतु हैं। 6. शुभ-अशुभ कषाय-भावों से साता-असातादि प्रकृतियों का बन्ध एवं आत्मगुण-घातक-घातिकर्मों का भी बन्ध होता है निरन्तर। 7. मिथ्यात्व एवं द्वेष (एकान्त से) अशुभभाव ही हैं, जबकि राग, शुभ अशुभ दोनों प्रकार का होता है और समस्त ही शुभाशुभभाव, कर्मास्रवबन्ध के हेतु हैं अर्थात् मोह (मिथ्यात्व), राग-द्वेषभाव से ही स्थिति अनुभागबन्ध होता है। (देखें, प्रवचनसार गाथा 180 ता.वृ. टीका) 8. मिथ्यादृष्टि एवं सम्यग्दृष्टि (व्रती-अव्रती) दोनों को यथायोग्य भूमिकानुसार/ कर्मोदयानुसार शुभोपयोग-अशुभोपयोग हुआ करते हैं। 9. समस्त संसारी जीवों को बन्ध के 5 प्रत्ययों की मन्दता-तीव्रतानुसार ही नवीन द्रव्यकर्मों का मन्द-तीव्र आस्रव-बन्ध हुआ करता है। ___ तथा जिस जीव (सम्यक्त्वी) के जो-जो प्रत्यय चले गये हैं (नष्ट हो गये हैं) उन-उनके निमित्त से होनेवाला आस्रव-बन्ध रुक जाता है, भले वे अशुभ-शुभ-शुद्ध उपयोगरूप परिणमन कर रहे हों। 10. काया और कषायभावों में एकत्व-बुद्धि होना ही निश्चय से मिथ्यात्व है। 11. असमान-जातीय-द्रव्यपर्याय में एवं व्रतादिरूप मन्द-प्रशस्त-कषाय में एकत्वरूप उपादेय-बुद्धि का होना ही प्रकारान्तर से (देव-गुरु-धर्मादि की सच्ची व्यवहार-श्रद्धा होने पर भी) सूक्ष्म-मिथ्यात्व है, जो निज-ध्रुव चैतन्य-तत्त्व के अवलम्बन से छूट सकता है। (पंचास्तिकाय गा.165 टीका) 12. जीव के असाधारण पाँच भावों - औपशमिक, क्षायिक, मिश्र क्षायोपशमिक, औदयिक एवं पारिणामिक (जीवत्व) - इनमें से मात्र मोहोदय सहित औदयिकभाव ही बन्ध के कारण हैं।