________________ प्रस्तावना : पाँच भावों में 'क्षयोपशम भाव' 19. जैसे, चारित्र-मोहोदय-जन्य विभावभाव (कषाय) की मन्दता-तीव्रता कर्म बन्ध की स्थिति-अनुभाग की नियामक/निर्णायक होती है; वैसे ही दर्शनमोहोदय-जन्य विभाव-भाव (मिथ्यात्व) की मन्दता-तीव्रता भी कर्म-बन्ध की स्थिति-अनुभाग की नियामक कारण है। अन्यथा गृहीत-अगृहीत मिथ्यात्व का कोई अर्थ (आत्मा का अहित करने में) नहीं रह जायेगा। सरागी देवों (क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि) को भजनेवाला जैन एवं मात्र वीतरागी देवों को भजनेवाला जैन, एक सदृश-परिणाम (लेश्या) वाले हों तो क्या दोनों को एक-सा ही कर्म का स्थिति-अनुभाग बन्ध पड़ेगा? - यह तर्क विचारणीय है; इसे गौण करना, मिथ्यात्व-पोषक है। 20. जैसे, औदयिक (मलिन) पर्याय, बन्धकारक है, वैसे ही क्षायोपशमिक पर्याय (दर्शन-चारित्र-मोहापेक्षा) में जो समल-अंश है, वह भी आस्रवबन्ध का कारक है और जो निर्मल-अंश है, वह संवर-निर्जरा का कारक है; इसीलिए इसे 'मिश्रभाव' भी कहा है। 21. इस एक क्षायोपशमिक मिश्रभाव/परिणाम/चारित्र पर्याय से आस्रव-बन्ध -संवर-निर्जरा मानना योग्य नहीं, उपचार-कथन हो सकता है, परमार्थकथन कदापि नहीं; फिर तो अज्ञानी-मिथ्यादृष्टि-जीवों के भी जो शुभोपयोग होता है तो उससे भी संवर-निर्जरा मानना पड़ेगी, जो आगम-विरुद्ध है, मिथ्यात्व-पोषक है। 22. जो निर्विकल्प-समाधिरूप शुद्धोपयोग से भ्रष्ट हैं, किन्तु सम्यग्दृष्टि हैं। 4 5-6वें गुणस्थानवर्ती हैं, शुभोपयोगी हैं (या कदाचित् अशुभोपयोगी भी हों) तब भी उन्हें सविकल्प-दशा वाला सम्यग्दृष्टि ही कहा है, न कि बहिरात्मा या मिथ्यादृष्टि। 23. जब 6वें गुणस्थानवर्ती मुनिराज, जो कि (प्रमत्तावस्थारूप, महाव्रतादिरूप सराग-सकल-चारित्र के पालनेरूप) सविकल्पदशारूप उत्कृष्ट शुभोपयोगरूप परिणमित हो रहे हैं, क्या तब भी उन्हें 'बहिरात्मा/मिथ्यादृष्टि' कहा जा सकता है? - कदापि नहीं। हाँ, स्वभाव-लीनतारूप शुद्धोपयोगदशा (निर्विकल्प-समाधिरूप दशा) से च्युत होकर शुभोपयोगरूप सविकल्प