________________ क्षयोपशम भाव चर्चा यदि यह कहा जाय कि तो फिर अनन्तानुबन्धी की तो अकिंचित्करता सिद्ध हुई तो उसका उत्तर है कि नहीं, ऐसा नहीं है। अनन्तानुबन्धी कषाय, स्थिति-बन्ध की मूल कारणभूत कषायों में से ही एक कषाय (चौकड़ी) है, अतः उसके उदित होने पर मिथ्यात्व-सम्बन्धी एवं सासादन-सम्बन्धी आदि प्रकतियों के स्थितिअनुभाग में वर्धन या वैशिष्ट्य अवश्य होता है; क्योंकि स्थिति-बन्ध की मूल कारण कषायें हैं। (संकिलेस विसोहिट्ठाणणिट्ठिदिबंध मूलकारणभूदाणि - ध. 11/ 309) अतः मूल कारण में वैशिष्ट्य आने पर तत्कार्यभूत स्थिति आदि में भी वैशिष्ट्य होगा ही। इस प्रकार अनन्तानुबन्धी के अनुदय में भी मिथ्यात्वी मिथ्यात्व, अविरति, (- पण्डित जवाहरलालजी भीण्डर से प्राप्त शंका-समाधान के आधार पर) उक्त जवाब प्राप्त होने पर पुनः कुछ शंकाएँ, मैंने स्वयं उन्हें लिखकर भेजी थीं, परन्तु शायद उस समय उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं होने के कारण मुझे समाधान प्राप्त नहीं हुआ, लेकिन यहाँ पाठकों के समक्ष विचार-विमर्श हेतु उन्हें प्रस्तुत कर रहा हूँ - "आदरणीय विद्वान श्री जवाहरलालजी सिद्धान्तशास्त्री, भीण्डर सविनय जयजिनेन्द्र! आशा है आप सकुशल होंगे। मुझे प्रवचनसार, गाथा 157 की अमृतचन्द्राचार्यकृत टीका (तत्त्वप्रदीपिका) में प्रयुक्त ‘क्षयोपशम' शब्द को लेकर अनेक शंकायें-प्रतिशंकायें विगत दो-ढाई पूछता रहता भी था, परन्तु कुछ ठोस समाधान अभी तक मिल नहीं पा रहा था। इसके बाद मेरा कुछ पत्राचार, पण्डित राजमलजी जैन, भोपालवालों से हुआ तो अनायास उन्होंने मुझे आपके साथ हुए पत्राचार की प्रतिलिपि भेज दी, जिससे मेरे अधिकांश प्रश्नों का समाधान हो गया; अतः उसके लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद! अत: आपसे साक्षात् मिलने की भावना अत्यन्त बलवती हो गयी है। ...... आपके समाधान के बाद भी कुछ बातें मन में उत्पन्न हो रही हैं, जिनका समाधान भी आपसे चाहता हूँ -