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कविवर वृचराज एवं उनके समकालीन कवि
विवेक हैं । चेतन राजा से दोनों को ही बराबर स्नेह मिलता है। मोह के घर में माया रानी होती है जो जगत को सहज ही में फुसला लेती है । निवृति विवेक को साथ लेकर नगर छोड़ देती है । वे दोनों कागे वलकर पुण्य नगर पहुंचते हैं जहाँ चेतन राजा राज्य करते थे। वहाँ उन दोनों को बहुत आदर दिया गया। सुमति का विवाह विवेक के साथ हो जाता है । विवेक का वहाँ राज्य हो जाता है ।
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इससे मोह को बहुत निराशा होती है। उसने पुण्या नगर में अपने चार दूत भेजे। उनमें से तीन तो वापिस चले आये केवल वहाँ कपट बचा जो सरोघर पर पानी मरने वाली महिलाओं के पास जाकर बैठ गया । नगर में ज्ञान जल सरोवर भरा हुआ था । वहाँ जो वृक्ष मे से मानी प्रत रूप ही थे। उस पर जो पक्षी बैठते थे वे मानों रिद्धि रूप में ही थे । कपट ने साधु का वेष धारण करके नगर में प्रवेश किया । वहाँ उसने न्याय नीति का मार्ग देखा तथा इन्द्र लोक के समान सुख देखे । वहाँ से वह अधर्मपुरी पहुँचा तथा मोह से सब वृतान्त कह सुनाया ।
अपने दूत द्वारा सभ वृतान्त सुनकर उसे बड़ा विषाद हुआ और उसने शीघ्र ही रोष, झूठ, शोक संताप, संकल्प विकल्प, चिता, दुराब, क्लेश आदि सभी को अपने दरबार में बुलाया और निम्न वाक्य कहे
करित्रि सभा तब मोह मदु व चित मन महि जब लग जीवन विशेष इहु तब लगु सुख हम नाहि ||३३||
मोह की बात सुनकर उसका पुत्र कामदेव उठा और उसने निवृत्ति के पुत्र विवेक को बांध कर लाने का वचन दिया । इससे सभी और प्रसन्नता छा गयी । उसने कुमति, कुसीस एवं कुबुद्धि को साथ लिया !
साथ में
सर्वप्रथम उसने बसन्त को नवपल्लव एवं पुष्पों से लद भ्रमर गुंजार करने लगे ।
कामदेव को अपनी विजय पर पूर्ण भरोसा था। भेजा । बसन्त के आगमन से चारों ओर वृक्ष एवं लताएं गयी । कोयल कुहु कुहु की मधुर तान छेड़ने लगी तथा सुरभित मलयानिल, सुन्दर मधुर गीत एवं वीणा आदि वाद्यों के मधुर गीत सुनायी देने लगे । चारों ओर अजीब मादकता दिखाई देने लगी । मदनराज आ गये हैं यह चर्चा होने लगी । कामदेव ने बहुत से ऋषि मुनियों को तप से गिरा दिया। बड़े-बड़े योद्धा जिन्हें अब तक मदोन्मत्त हाथी एवं सिंह कामदेव के वशीभूत होकर चारों खाने चित्त पड़ गये। इस प्रकार कामदेव सब पर विजय प्राप्त करता हुआ उस वन में पहुँचा जहाँ भगवान ऋषभदेव ध्यानस्थ थे । वह धर्मपुरी थी। विवेक ने सयमश्री का विवाह आदिनाथ से कर दिया था। लेकिन जब उसने कामदेव का आगमन सुना तो शत्रु को पीठ दिखा कर भागने
भी डरा नहीं सके थे वे सन