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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
योगहि पेपि रामगोपाल
पक्षी।
करु उचाइ तिनि दई घसीसा, हूजी राजु तुम्हारे सीसा ||३५||
श्लोक
पुष्पमतप्रमालोके श्री सुरतरंगिनी ।
तावत् भित्रसमं जीव, मरित्तो नराधिपः ॥ ३६॥
श्राशीर्वाद -
जब भार वीथ्यो कुरता, जवहि कंसु नारायन हो, वर भुवनु जिसे महि भए,
जुग मए ||३२||
हो तोकी सुनि तूठो राइ, मगि मांगि यो हियेइ समाई । भने महौ महि ग्रवतर्यो, जानमि सयलु महागुन भन्यौ ॥ ३७॥ व्यंतर भूत हमारे ईठ, रावनु रामु भिरत में दीठ । पेथ्यो भीमूह कारे देता ||३८|| पेषत जरासिंधु क्षो गयो । मो आगं प्यार पुण्य हमारी भयो सहाइ । देषत पापु हमारी गयो ॥४०॥ करहि अमर अरु चलमि दिवाना | इतने करम हमारी काजू ||४१|| साची जाको फुर्र न ज्ञानु । पुजवभि राय तुमारी प्रासा, होहि अमरु श्ररु चलहि प्रकासी ॥१४२॥
कर जोरि भन्यो तव राह, तो मो तेरी दरसनु भयो, जो तूस किमि मंगमि प्राणा, एक छत्र ज्यो प्रविचल राजू, पाखंडी बोलं परि ध्यानु
मारि देवी का वर्णन-
एक बचनु करि मेरो एहू, जैतो व वार्ता को गेहूँ | चमार देवी आप पनी, बहु विधि पूजा करिता तनी ||४३|
जे ते जीव जुयल सब अनि नरवर अधिनि सुनि मुनषाणि । देवलि सब देवी के थाना, सिद्धवमि का निसुनि सिव जाना ||४४ तब सुनि राव मृढमति भयो, राजा राजु करत परिह । कु जर उवर रात्र ब्राह्मी ||४३|| गया तहा देवी को थान । किकर को दीनों उपदेसु ॥ ४६ ॥
योगी तनी कुमति प्रभु हुह्यौ की वहूतु योगी को मान योगी देवी भगतु नरेसु