Book Title: Kavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
View full book text
________________
कविवर ठक्कुरसी
२६१
कवित्त
किसस गरवं भईन भड रिद्धि नि ने ही सूहि किसी। किसी मंप्ति जसु बुद्धि मंदी किसी तुरंगमु बेग विणु । फिसो जति जसु वसिन इंदी किसौ वैदु जो ना लहो । देह व्याषि कर जोइ निगुणी किषण गुण विथरै किसौ कीसरु सोइ ।।१।। ज्यो ऋजणणी जरमणु गुणवंत षियगरुई होण वरु । पेखि पेखि मन में विसूरइ ज्यों सेव कुसेवा किया। होह दुमणु भासा ने पूरइ ज्यो पछितायो जरणा । अवसरि सुजसु न लिख कहि ठाकुर त्यो कवियण नर निगुरा गुण किद ।।२।। नर निर खर निकुलनि लज्जा निनेहीमी चरइ । निगुण सगुण अंतर न जाणं बोल सूक बहुली कहण । विनय वचनु होलि बिन जाणे कूचर कुसर कठोर प्रति । संपक सदासलौम कहि ठाकुर तह गुण कहहि ते कवि लहहि न सोम ॥३॥
सगुण सुबर सदा सद्धम साहमी सनहे कर। सुजसु संचि जे प्रजसु मूकै विना विच खिण बड चिता । बंस सुध बोल न चूर्फ पाप परमुह पर तणउ । परद्द करहि दुखु भनि तह जपु कहाहि मि कुरसी तेरु कवीसर धनि ।।४॥
कहा बहिरट करा रसुगीउ कहा कर ससि पंघलो । कहा कर नरु संतु नारी कहा कर कर हीण नरु । गुण सजुत्त को बडुकारी कहा कर चंपउ भवरू परिमस । परिमल पथि विसाल कहा करै त्यों निगुण नरु कधियण कव रसालु 11|| जद रूवहि रइ सुण्यो नहु गौतु, जद न दि ससि अंधलइ । जई न तहरिण रसु संदि जाण्यो, जइ न भवरू वंपइ रम्यो। जाद न घणकु करहीणि ताण्यो, जह किरिण निगुणि निलखरगो । कब्धि न की यो मम्णु कहि ठाकुर, तउ गुणी मण नाउ जासी सुणु ॥६॥
11 इति कवित्त समाप्सः ।

Page Navigation
1 ... 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315