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कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
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चन्द्रमती द्वारा शिक्षा
ऐसो वचनु सण सुब मुह काढि, याहू तेर चवगनो यादि । सर्पिषि भीलु ण होहि, कुटमु मृयनु सब लाग्यो तोहि ।। २६२ ॥ जं सुपिहि डर वरवीर, संगर केम सहि सुन मोर डर हीन दीनु कुक्षि रंकु, तू कुल मंडनु राउ निसंकु ॥ २६३ ॥
देविनि के दिन भारे पूत, महियल में मवमाते भूत । भवहि रैनि जोगिण के ठाट, मढ मंदिर व तोररिए घाट || २६४ ॥ मोहु रथणि जाई बर रात । ढाको बलि पूजा करि घनी ।। २६५।।
सुव हि साची वात, कंचारिण देवी तो तनी,
हमे
देवी को हुन पूज कराह ।
भास्यो दिय वर तर्न पुराण, जिनबर मुण शिष्यो कारण ।। २६६॥० हो इकु सर सुभु राजु प्रषंह, कंचाईणि राषौ मुब द
।
पिलुणि वचनु बोले महिराउ, हा किमि मूळ अम्मी जिय चाय ॥ २६७॥
राजा द्वारा हिंसा का प्रतिरोध
जव घात छौ उवजे धम्मू, लोको अवरु पाप को कम्भुं ।
जे ते लब चौरासी षाणि ते सब कुटमु माइ तू जारि ।।२६८ ।।
सो भवंतरुगह्योग मा जीव घातु जो कोइ करें,
सो पशु धातु करण किमि जाह । हिच णरक माइ सो परं ।।२६६।।
लोक
नास्ति महत्परो देवो दम्मो नास्ति दया विना । सपः परम निरग्रन्थो, एतत्सम्यक्त लक्षणं ॥२७०॥
चन्द्रमती द्वारा अनिष्ट निवारण का
उपाय
चन्द्रमती बोली विद्धति होरा दंतपंति झलकति । एकु वचनु सुव मेरो पारि देवी तनी ण पूजा टारि ।। २७९ ।।
जैसे कुसरा मार्गे छू हो६, दुषु ण कुक्कूट करवां हि एकु. कुणि तू तप लीजह सुकुमार, मान्यौ बचनु चन्द्रमति तनी,
दालिंद्र रग व्याप कोइ । देवहि देह वोइ दुष घेऊ ।। २७२ || वलि पूजा करि अबकी बार । माता भाउ पयास्यो पनी ।।२७३ ।।