Book Title: Kavivar Boochraj Evam Unke Samklin Kavi
Author(s): Kasturchand Kasliwal
Publisher: Mahavir Granth Academy Jaipur
View full book text
________________
कविवर बूचराज एवं उनके समकालीन कवि
रे सारथि ए प्राजे, पसु बघि घऱ्या किरिण काजे । तिणि जप्यो कृष्न पनाथी पसु जाति जके भनिभाया । पोषांबा भति बराती, पसु बांध दासह परभाती । सन नेमिकुमरु रथु छोडी, पसु मुफलाया वध तोहो । भयभीत जीव ले भागा, त्रिभुवनु गुरु चीतण लागा । इल्तु जीव विषई फउ घास्यो, ह जिहि जहि जोरणी घाल्यो । तिहि तिहि तिय पासि धायौ" इव शो तपु तप विचारे, ज्यों फिर न पडो संसारे । इम चीति र चल्यो कूमागे, प्रायो राक्षण परिवारो। अहो कवर कवणि तू वांधी, तप लेवा जोग उमायो। तपु तपिउ न वाले जाई, करि व्याह करहि समझाइ । जब प्रोटउ होहि कुमारि, तय लीजह तपु भवतारि। हसि नेमि कुवरु तव बोले, मुझ जनम मरण मन छोले । जइ पइ पहचई कालो, तव गिण ण दुतो वालो । जहि जहि जोषी हो जायो, तिहि तउ कुटंब उपायो । इह मोहु कवरण परिकोज, तिणि काजि माइ तपु लीजै। माइ बापु दुवै समझाव, परियण जण सयल समाव । विलबंतु साथु सत्रु छोडे, गो नेह निमष मै तोडे । माभरण ते वस्त्र उतारे, चदि लीयो सपु गिरनारे ॥
दोहडा सुणिय बात राजमति करि परिहरियो सिंगारु । पिड पिज करती तिह चली, जहिं पनि नेम कुवारु ।।६।। माह बाप बंघव सखी, समझावहि कहि भाउ ।
अबरु वरहि वरु भावतो, गयो नेमि तो जाउ ।।१०।। गयउनु दै पिड जाणी, उन कहहि सुवरु किरि प्राणी । जंपइ रजमतीय प्रणेरा, जिण विणु वर बंधव मेरा ।।११।। कइ बरउ नेमियर भारी, सखि के तपु लँउ कुमारी । चढि गैवरि को सरि वैसे, तमि सरगि नरगि को पैसे ।।१२।। तजि तीणि भवन को राई, फिम प्रवरुनु परो वरु माई । समझाइ राखि सवु साथी, तिहां चलीय जिहा पिउ नाथो ।।१३।।

Page Navigation
1 ... 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315